Friday, November 23, 2007

दिल्ली वालों के लिए

११ दिसम्बर २००७ को दो से पाँच बजे शाम को चिट्ठेबाज़ी के ऊपर कार्यशाला है। पता है, सराय-सीएसडीएस, 29, राजपुर रोड दिल्‍ली 110054, मूल घोषणा यहाँ छपने में थोड़ा समय लग सकता है। मूल घोषणा के अनुसार कोई भी सीखने सिखाने में दिलचस्पी रखने वाला इसमें शामिल हो सकता है। और जानकारी राकेश से मिलेगी।

वालो या वालों?

Tuesday, October 30, 2007

अंग्रेज़ी के माथे एक मौत

On October 22, a 22-year-old second-year B.Tech student of the IEC Engineering College Noida, hanged himself. The suicide note Brajesh Kumar left behind in the room he shared with another student in Tughlakpur village said that he was doing this because he could not cope with the courses being taught in English and that he did not want to burden his family with paying another hefty amount towards special English coaching classes.

हालाँकि यह प्रतिक्रिया अतिवादी है और मैं इसे बिल्कुल ठीक नहीं मानता, यह अंग्रेज़ी के मुद्दे की गंभीरता बयान करती है. उच्च शिक्षा का माध्यम मातृभाषा से अलग होना भारत की कई पीढ़ियों के करोड़ों छात्रों का सिरदर्द रहा है.

मृणाल पांडे का समाधान है कि अंग्रेज़ी को सरकारी स्कूलों की प्राथमिक क्लासों में अनिवार्य विषय बना दिया जाए. मेरा मानना है कि हालाँकि वह भी होना चाहिए (क्योंकि अंग्रेज़ी के साधारण ज्ञान की वर्तमान उपयोगिता से कोई इंकार नहीं कर सकता) पर ज़्यादा ज़रूरी यह है कि उच्च शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा हो. आधुनिक तकनीकी विषयों पर अच्छी गुणवत्ता की पठन पाठन सामग्री स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध हो. स्कूलों में पढ़ाई गई भाषा कितना भी कर ले एक माध्यम के तौर पर उस भाषा का स्थान नहीं ले सकती जो प्राकृतिक तौर पर बोलकर सीखी जाती है. और संवाद के तौर पर तो कतई नहीं.

आश्चर्य इस बात का है कि ऐसा अभी तक हुआ क्यों नहीं. क्या हिंदी का बाज़ार अभी भी इतना बड़ा नहीं कि वह हिंदी में शिक्षा की माँग कर सके? या यह उस छोटे, पर ताकतवर, अंग्रेज़ी समाज के प्रतिरोध की वजह से है ताकि वह शेष भारत की प्रतिद्वंदिता से बच सके और अपना प्रभुत्व बनाए रख सके? या बस इस पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया? क्या बिना कुछ और ब्रजेश कुमारों की आत्महत्याओं के इस बारे में कोई नहीं सोचेगा? आखिर कब तक ज्ञान 80% लोगों के लिए मुश्किल बना रहेगा?

आप क्या सोचते हैं?

Friday, October 19, 2007

इस ब्लॉग के पाँच साल

कोई यूँ ही सा दिन रहा होगा
ख़ब्त थी शायद या ज़रूरत रही हो
बहरहाल मुश्किल से दो मिनट लगे थे
इस ब्लॉग के जन्म में
विचार से निर्माण का सफ़र
तभी छोटा हो चुका था

फिर एक-एक दो-दो कर
इकट्ठा होने लगी पोस्टें
और चलने लगे इस ब्लॉग के दिन
महीनों की गठरी में सिमटे
कभी मिनट-मिनट में बँटे
कभी हफ़्तों-हफ़्तों कूदते
कभी किसी बोर फ़िल्म-से लंबे
कभी शाम को शुरू होते
और यूँ चलते-चलते
आज 60 गठरियाँ बँधी हैं

दूर की सोच के इस दौर में
जब नज़रें आगे, बस आगे देखने की अभ्यस्त हो गई हैं
कभी-कभी (पर बस कभी-कभी)
पीछे मुड़ कर देखना
अच्छा लगता है

चमकती स्क्रीन पर लटके
इन गहरे स्याह अक्षरों में
स्याही की ख़ुशबू भले न हो
नॉस्टॅल्जिया ज्यों का त्यों मौजूद है
डायरी के पन्ने पलटने का मज़ा
माउस की क्लिकों से बेशक नदारद है
पर तख़लीक़ की तकलीफ़
वैसी की वैसी है
ये अक्षर भी उतने ही अ-क्षर हैं
बल्कि शायद कुछ ज़्यादा ही
क्योंकि काग़ज़ी हर्फ़ों की तरह
इनके धुँधले पड़ने का कोई ख़तरा नहीं

लीजिए कहाँ उलझ गया
आया तो आपको धन्यवाद कहने था
आपको शायद पता न हो
(मुझे भी देर से महसूस हुआ)
पर इस यात्रा की लगातारी में
आपका योगदान सबसे बड़ा है
इसलिए, शुक्रिया!

Thursday, October 11, 2007

उदाहरण.परीक्षा

ताज़ा अपडेट (15 अक्टूबर) - http://उदाहरण.परीक्षा अब परीक्षण के लिए चालू है. अगर यह कड़ी काम नहीं करती तो यहाँ क्लिक करें (और बेहतर होगा कि अपना ब्राउजर बदल लें या नवीनीकृत कर लें). परीक्षण का खुलासा करता हुआ एक विडियो भी है.

ख़बर है कि नए बहुलिपि डोमेन नामों के परीक्षण के लिए हिंदी डोमेन होगा - उदाहरण.परीक्षा. इन परीक्षण डोमेनों को 9 तारीख को रूट सर्वरों पर जोड़ दिया गया. परीक्षण विकी की कड़ियाँ आइकैन की वेबसाइट पर 15 अक्टूबर को प्रकाशित की जाएँगी.



लगे हाथों एक और ख़बर - आइकैन की 31वीं अंतरराष्ट्रीय बैठक अगले साल 10-15 फरवरी को नई दिल्ली में होगी.

Friday, October 05, 2007

हिंदी और तमिळ में डोमेन नाम

परसों विंट के मुँह से सुना और आज ख़बर अख़बार में थी. अनुनाद ने भी आज इसका ज़िक्र किया है.

अगले साल के अंत तक पूरे के पूरे डोमेन नाम (टीएलडी यानि शीर्ष-स्तर डोमेन नाम समेत) लैटिन के अलावा 11 अन्य लिपियों में प्रयोग किए जा सकेंगे. भारतीय लिपियों में हिंदी (देवनागरी) और तमिळ को इस शुरुआती दौर के लिए चुना गया है.

परीक्षण इसी 15 अक्टूबर से शुरू हो जाएगा, जब आइकैन व्यक्तियों और व्यापारों को इसे जाँचने के तरीके मुहैया कराएगा. अभी हालाँकि इन नामों के पंजीकरण तो शुरू नहीं होंगे, पर आपसी संवादों, ई-मेल, वेब कड़ियों में इन्हें इस्तेमाल किया जा सकेगा. आइकैन के अनुसार एक तरह से पूरी दुनिया को इस प्रणाली को तोड़ने के लिए आमंत्रित किया जाएगा. आप भी तैयार रहिएगा :).

नागरी के मामले में कुछ बातें हैं जिन्हें परखने के लिए मैं उत्सुक रहूँगा. मसलन भिन्न कूटांको वाले पर एक से दिखने वाले हिंदी शब्दों को यह सिस्टम कैसे सँभालेगा. यह जानना भी दिलचस्प होगा कि हिंदी में .com या .org आदि डोमेनों को कैसे लिखा जाएगा.

क़दम स्वागत योग्य है, भले ही ज़रा देर से उठा है. उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब सिर्फ़ नागरी जानने वाला एक व्यक्ति "गूगल.कं.भारत", "वेब.बीबीसीहिंदी.कॉम" या "भारत.सरकार" जैसा कुछ टाइप कर भी इन गंतव्यों पर पहुँच पाएगा.

Thursday, October 04, 2007

इंटरनेट के जन्मदाताओं के साथ एक शाम

इंटरनेट के आविष्कार की कहानी बॉब कॉन और विंट सर्फ़ से सुनने को मिले, इसे मैं बतौर इंटरनेटजीवी एक दुर्लभ सुख कहूँगा. ये सुख कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसा शायद कोई टेलीकॉम इंजीनियर खुद ग्राहम बेल से टेलीफ़ोन की निर्माणगाथा या कोई संस्कृतज्ञ खुद पाणिनी से संस्कृत व्याकरण की रचना के बारे में सुन कर अनुभव करेगा.

जो न जानते हों उनके लिए बता दूँ कि ये दोनों "इंटरनेट के जनक" माने जाते हैं. दोनों ने मिलकर नेट के मूलभूत प्रॉटोकॉल टीसीपी/आइपी का आविष्कार किया था. उसके बिना आज का जीवन कैसा होता इस सोच में जाना तो काफ़ी समय माँगता है, हाँ इतना तो कम से कम कह ही सकता हूँ कि आप मेरा ये लिखा न पढ़ रहे होते.

कल बॉब और विंट शहर (वाशिंगटन, डीसी) में थे. अमेरिका के नेशनल आर्काइव्स (राष्ट्रीय अभिलेखागार) में आयोजित एक चर्चा में दोनों ने करीब डेढ़ घंटे तक खुलकर बात की. हालाँकि चर्चा का मुख्य विषय "इंटरनेट गवर्नेंस की बहस" था, दोनों इंटरनेट के शुरुआती दौर (सत्तर के दशक) के किस्सों से लेकर नेट के भविष्य पर अपने विचारों समेत कई मुद्दों पर बोले. नेशनल आर्काइव्स के छोटे से मैकगॉवन थियेटर में करीब 200 लोग थे जिनमें अमेरिकी सरकार के नुमाइंदे और डीसी इंटरनेट सोसाइटी के सदस्य मुख्य थे. कार्यक्रम के मध्यस्थ थे आर्काइव्स फ़ाउंडेशन के चेयरमैन टॉम व्हीलर.

इस सवाल के जवाब में कि क्या हम आज इंटरनेट को कुशलता से (एफ़िसियंटली) प्रयोग कर रहे हैं, विंट का कहना था नहीं. कई ऐसे परिदृष्य हैं जहाँ ऐसा नहीं हो रहा है. मसलन डाउनलोड और अपलोड बैंडविड्थ में अंतर. उनका कहना था कि पहले ये ठीक था क्योंकि शुरुआती दौर में निर्माता/प्रकाशक कम थे और उपभोक्ता ज़्यादा. पर अब ब्लॉगों और यू-ट्यूब के ज़माने में हर कोई निर्माता है. इस अंतर को समझ कर हमें बदलाव करने होंगे.

बॉब का कहना था कि मैं इस प्रश्न को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता. जबकि बैंडविड्थ लगभग असीमित है, कुशलता या एफ़िसियंसी हमारी प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए. हमारी प्राथमिकता फ़ंक्शनॅलिटी होनी चाहिये.

बॉब का जवाब मुझे एक और संदर्भ में दिलचस्प लगा. मेरे ख़याल से उनकी ये बात हिंदी के लिए यूनिकोड मानक के उपयोग (ख़ासकर मोबिल यंत्रों पर) के पक्ष में जाती है. यूनिकोड, एस्की जैसे सरल कूटकरणों के मुकाबले ज़्यादा संसाधन (मुख्यतः बैंडविड्थ) माँगता है, पर हिंदी और अन्य ग़ैर-लैटिन लिपियों के लिए अब सवाल संसाधनों का नहीं, सुविधा का होना चाहिये.

निकट भविष्य के बारे में विंट का कहना था कि आइपी6 को लागू करना पहली प्राथमिकता है क्योंकि 2010 तक आइपी4 के पते ख़त्म हो जाएँगे. इसके अलावा उन्होंने बताया कि 2008 में अन्य लिपियों में डोमेन नाम भी पूरी तरह काम करना शुरू कर देंगे.

बॉब ने डारपा (अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की संस्था, जहाँ इंटरनेट का आविष्कार हुआ) छोड़ने के बाद एक नॉन-प्रॉफ़िट संस्था सीएनआरआइ शुरू की और अब उसके अध्यक्ष व सीईओ हैं. विंट इन दिनों गूगल के उपाध्यक्ष और चीफ़ इंटरनेट इवैंजलिस्ट (प्रचारक) हैं. इसके अलावा 2000 के बाद से वे आइकैन बोर्ड के चेयरमैन भी हैं.

सेलफ़ोन से कुछ तस्वीरें ली थीं. बहुत अच्छी तो नहीं हैं पर पोस्ट करूँगा ये रहीं.

Wednesday, September 26, 2007

अंग्रेज़ी न बोलने वाला भारत

राजदीप सरदेसाई "ट्वेंटी-20 विश्व कप" की भारतीय जीत में हिंदी और भारतीय भाषाओं का बदलता रुतबा देख रहे हैं. उनका कहना है कि महानगरों के बाहर का भारत, अंग्रेज़ी न बोलने वाला भारत अब राष्ट्रीय पटल पर ज़्यादा तेज़ी और मुखरता से उभर रहा है. लेख दिलचस्प है और उस तस्वीर पर ध्यान दिलाता है जिसके बारे में अंग्रेज़ी मीडिया में अक्सर बात नहीं होती. पेश है उनके लेख से संबंधित अंश.

In 1983, those who worked in the non-English media were seen as lesser beings: they got far lower salaries, their rooms were smaller, their stories attracted scant attention. How, after all, could you compare an Oxbridge educated editor with someone from Chaudhary Charan Singh university? Today, quite remarkably, there has been a dramatic change: Hindi TV journalists can demand a price in the marketplace, the energy and robustness of Hindi channels is to be admired (even if it is misdirected at times), and most news networks acknowledge that their Hindi channel viewership is more important than their English audience. A Hindi journalist can no longer be dismissed as an ignorant vernacular; he is now seen as the person with a ear to the ground.

A similar change can be seen in the IITs. In 1983 they were populated by English-speaking graduates. Today’s young IITians come from small towns, their English imperfect, but their educational achievements second to none. The rules of admission remain the same.
हमारा अंग्रेज़ीदाँ समाज, जो अभी भी अधिकतर क्षेत्रों में प्रभुत्व जमाए है, भारतीय भाषाओं के प्रति या तो प्रतिरोधक रवैया रखता है या उदासीन. भारतीय भाषाओं और इसके बोलनेवालों की वह मुखरता जो राजदीप देख रहे हैं इस प्रतिरोध के बावजूद है. बरसों के बाद अपनी भाषा में जीने और अपनी बात रखने के मौके और मंच उन लोगों को बाज़ार और तकनीक ने दिये हैं, शासकों और मालिकों ने नहीं. उनकी सफलता प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष से प्राप्त की गई सफलता है.

आज़ादी और प्रगति का एक महत्वपूर्ण मापदंड है स्वावलंबन. भाषा उसकी पहली सीढ़ी है. भाषा का स्वावलंबन देश की प्रगति की शुरुआत होनी चाहिये, उसकी पूर्णता नहीं.

Monday, August 27, 2007

हिंदी में कंप्यूटर होने के लाभ

...यंत्र के स्तर पर (हिंदी) की ज़रूरत क्या है? यंत्र को हिंदी मालूम होने से प्रयोक्ता को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। उसे केवल अपनी मातृभाषा में कंप्यूटर का आवरण चाहिए। यहाँ यूरोप में हमारी कई भाषाएँ हैं। और मेरे देश, फ़िनलैंड में, कई भाषाएँ बोली जाती हैं, लेकिन फ़िनी सबसे आम है, और उसके बाद स्वीडिश है। सभी कंप्यूटर विंडोज़ के फ़िनी या स्वीडिश अनुवाद सहित ही मिलते हैं। अधिकतर लोग अपनी मातृभाषा में ही सभी प्रोग्राम खरीदते हैं।

यह बहुत आसान होता है, छोटे बच्चों के लिए भी। उन्हें कोई विदेशी भाषा नहीं सीखनी पड़ती, न ही अजीबोगरीब अंग्रेज़ी वर्तनी सीखनी पड़ती है। बल्कि तार्किक फ़िनी वर्तनी पहले सीख लेने के बाद बच्चों को अंग्रेज़ी की बेहूदा वर्तनी सीखना ही बहुत मुश्किल होता है। हिंदी की तरह ही फ़िनी में भी उच्चारण आधारित वर्तनी होती है, हालाँकि हम रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं। अगर सब कुछ अपनी मातृभाषा में हो तो अंतरापृष्ठ में विकल्पों, जमावों, और फ़ाइलों को देखना बहुत आसान हो जाता है। खासतौर पर जब शब्द संसाधक और वर्तनी जाँच भी अपनी भाषा में हो तो और भी।

कुंजीपटल का जमाव दोनों के लिए एक सा ही है क्योंकि फ़िनी व स्वीडिश दोनों एक ही तरह के अक्षर व जमाव का इस्तेमाल करते हैं। अंग्रेज़ी वाले भी उसी जमाव का इस्तेमाल कर सकते हैं, हालाँकि कुछ अक्षर अलग जगह होते हैं। रूसी भाषी सिरिलिक कुंजीपटल खरीदते हैं, जिनमें रोमन अक्षर भी होते हैं, या फिर फ़िनी कुंजीपटल पर सिरिलिक की चिप्पियों का इस्तेमाल करते हैं।

...

मुझे समझ नहीं आ रहा कि हिंदी के पीसी बेचने का इतना विरोध क्यों हो रहा है। मुझे लगता है कि इसका स्वागत होना चाहिए। प्रणालियों को मुक्त, एक दूसरे के साथ सामंजस्य युक्त व पेटेंट मुक्त होना चाहिए।

कुंजीपटल के बारे में, मुझे कुंजीपटल के पेटेंट के बारे में पता नहीं था। हो सकता है कि वे पेटेंट कर रहे हों, पर उससे क्या? इंस्क्रिप्ट व रोमन जमाव तो उपलब्ध हैं ही, तो भारतीय भाषाओं के संगणन में एक और अमानक चीज़ लाने का क्या लाभ?

- औस्सि विल्यकैनेन, पूरा सूत्र, इंडलिनक्स-हिंदी की डाक सूची के पुरालेखों से। ऑसी जी संस्कृत में दिलचस्पी रखते हैं, और कंप्यूटर पर संस्कृत में काफ़ी काम करते हैं। ये टिप्पणियाँ उन्होंने कालिबोंका के हिंदी पीसी पर छिड़ी चर्चा के दौरान की थीं।

अगर आपको उपरोक्त टिप्पणी दिलचस्प लगी तो माइक्रोसॉफ़्ट का विंडोज़ एक्सपी का हिंदी अंतरापृष्ठ पैक, व हिंदी में लिनक्स भी दिलचस्प लगेंगे।

Thursday, August 23, 2007

गुरू न जाने आशीर्वाद

क़रीब साल भर पहले मैंने लिखाई में दिखने वाली 10 आम ग़लतियों की सूची पोस्ट की थी. इसमें 5वें क्रम पर थी ये ग़लती -

५. रेफ को एक अक्षर पहले लगाना
गलत - मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है।
ठीक - मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।

एक ताज़ा ख़बर पढ़कर ध्यान आया कि उज्ज्वल भी ऐसा ही एक अक्सर ग़लत लिखे जाने वाला शब्द है. और लगता है लखनऊ संभाग प्राथमिक शिक्षा के अतिरिक्त निदेशक आर पी शर्मा जी भी इस बात को जानते थे. बड़ी ख़ूबी से उन्होंने एक अचानक दौरे पर शिक्षकों को जाँचने के लिए इन दोनों शब्दों का इस्तेमाल किया.

उज्ज्वल को अपनी सूची में शामिल करने के लिए क्रमांक 5 को यूँ संशोधित कर सकता हूँ.

५. रेफ और अर्धाक्षरों वाले हिज्जों में ग़लती
गलत - जब तक मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है, तुम्हारा भविष्य उज्जवल है।
ठीक - जब तक मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है।

बहरहाल, शर्मा जी की बात में वजन है कि अगर पढ़ाने वालों के बुनियादी फण्डे ही कमज़ोर होंगे तो शिक्षा में गुणवत्ता की बात करना बेकार है. पर काश उन्हें इस "सरप्राइज़ इंस्पेक्शन" का ख़याल मायावती की डाँट के बगैर ही आ जाता. गुरुओं के "आर्शीवाद" से हमारे छात्रों के भविष्य को "उज्जवल" हुए तो अर्सा हो गया.

Saturday, July 28, 2007

चीन में चीनी का इस्तेमाल न करने पर मुक़दमा

चीन में मेक्डोनल्ड्स के विज्ञापन चीनी में आते हैं, और सारे कर्मचारी भी चीनी हैं, अतः उनको भी चीनी आती ही है। ग्राहक भी अधिकतर चीनी ही हैं। शान नामक एक वकील ने पिछले मई और जून में वहाँ खाना खाया, तो रसीद अधिकांशतः अङ्ग्रेज़ी में थी। उन्होंने जानकारी के अधिकार के उल्लङ्घन के अन्तर्गत कम्पनी पर मुक़दमा दायर किया है, उनका कहना है कि चीनी में रसीद न होने से उनके अधिकार का हनन हुआ है।
सम्भवतः इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप जुलाई से मेक्डोनल्ड्स की सभी रसीदें भी अब पूर्णतः चीनी भाषा में हो गई हैं, और कम्पनी वाले सफ़ाई दे रहे हैं कि हमारी सारे विज्ञापन तो चीनी में ही हैं, और सब कर्मचारियों को भी चीनी आती है, केवल रसीद भर ही चीनी में नहीं थी। लेकिन वकील शान चाहते हैं कि उन्हें एक युआन - लगभग ५ रुपए - का हर्ज़ाना दिया जाए - और अखबारों में मेक्डोनल्ड्स वाले इसके लिए माफ़ीनामा छापे। और यह हाल तब है जब रसीदें अधिकांशतः अङ्ग्रेज़ी में थीं, यानी अंशतः चीनी में भी थीं।

कल्पना करें कि ऊपर वाली खबर में चीन के बदले भारत हो और चीनी के बदले हिन्दी - या फिर तमिळ, तेलुगु या मराठी - नहीं कर पाते न कल्पना? भारत और हिन्दी के सन्दर्भ में देशभक्ति और स्वभाषा प्रेम की इस प्रकार की पराकाष्ठा तो क्या शुरुआत की भी कल्पना कर पाना मुश्किल है।

Friday, July 13, 2007

"बॉलीवुड"

ख़बर है कि जाने-माने अंग्रेज़ी शब्दकोश मेरियम वेब्स्टर के इस साल जोड़े जाने वाले शब्दों की सूची में "Bollywood" भी शामिल है. ऑक्सफ़ोर्ड ने इसे 2003 में ही शामिल कर लिया था. अब एक प्रतिष्ठित अमेरिकी शब्दकोश द्वारा पहचाने जाने के बाद अंग्रेज़ी में इसकी मान्यता को पूर्णता मिल गई है.

हालाँकि मैं व्यक्तिगत रूप से इसके हिंदी फिल्मों के अर्थ में इस्तेमाल से सचेत होकर बचता हूँ, मेरी शिकायत यह नहीं कि शब्द मेरियम वेब्स्टर में आ गया है. देर सवेर आना ही था. शिकायत ये है कि इसके दिए गए मायने इसके संदर्भों की पूरी हक़ीक़त बयान नहीं करते. ग़म इस बात का है कि इसके अर्थ में कहीं भी ये ज़िक्र नहीं है कि कई लोग, विशेषकर ख़ुद उस उद्योग से जुड़े लोग, इसे अपमानजनक (offensive, derogatory) मानते हैं. लोगों की छोड़िये, शब्द की संरचना में ही हीनबोध, पैरोडीकरण, मज़ाक उड़ाता लहजा साफ़-साफ़ देखा जा सकता है. शब्दकोश के संपादकों को ये समझ न आया हो, मुश्किल लगता है. इसीलिये इस विशेषार्थ को शामिल न करने में मुझे अज्ञान से ज़्यादा बेईमानी नज़र आती है.

क्योंकि ऐसा नहीं है कि शब्दकोश में ऐसे शब्द पहले नहीं हैं या विशेषार्थों का ज़िक्र करने की परम्परा नहीं है. मसलन, अंग्रेज़ी शब्द 'निग्गर' को लीजिये. इसकी परिभाषा में उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि यह शब्द "सामान्यतः अपमानजनक" ("usually offensive") है. मैं ये नहीं कह रहा कि दोनों शब्द बराबर तौर पर अस्वीकार्य हैं. बेशक निग्गर की अस्वीकार्यता सर्वव्यापी है, जबकि 'बॉलीवुड' तो मीडिया समेत कई जमकर इस्तेमाल करते हैं. पर इसमें भी कोई शक नहीं कि एक बड़ा वर्ग 'बॉलीवुड' शब्द से न केवल बचता है बल्कि उसे अपमानजनक पाता है. खुद इंडस्ट्री में गुलज़ार, ओम, नसीर, अमिताभ से लेकर शिल्पा शेट्टी तक कइयों ने खुले तौर पर शब्द का विरोध ज़ाहिर किया है. इसलिए अगर "usually offensive" नहीं तो कम से कम "sometime offensive" या "offensive to some" जैसे किसी चिह्न के साथ इसे दर्ज करना ज़्यादा सही होता।

'बॉलीवुड' शब्द के बारे में एक सीधी, साफ़, खरी बात हाल ही में नसीर ने कही -

"इससे बड़ी बेहूदगी कोई नहीं हो सकती, कोई आपको अपमानित करने के लिए 'इडियट' कहे और आप उसको अपना नाम बना लें, ऐसी ही बात है बॉलीवुड कहना."
वैसे मेरे ख़याल से शब्द बेकार नहीं है. दरअसल हमारे पास एक सिनेमाई श्रेणी (genre) ऐसी है जो बहुत तेज़ी से फल-फूल रही है और जिसके लिए एक शब्द हमें चाहिए भी. "बॉलीवुड" उसके लिए बड़ा युक्तिसंगत शब्द होगा. शब्द की परिभाषा कुछ यूँ होगी - "बम्बई में बनी ऐसी फ़िल्मों की श्रेणी और उससे जुड़ा उद्योग जो हॉलीवुड फ़िल्मों की नक़ल पर आधारित हैं." क्या कहते हैं?

ख़ैर..

इस शब्द की व्युत्पत्ति का श्रेय गीतकार अमित खन्ना लेते हैं और इस अंदाज़ में जैसे उन्होंने कोई बड़ी मुश्किल आसान कर दी हो. पर सच में शब्द की व्यापकता का श्रेय अगर किसी को मिलना चाहिये तो पश्चिमी फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी पत्रकारों को. शब्द हों या व्यक्ति, हमारे देश में सम्मान या व्यापकता पाने का सबसे पुख़्ता तरीका है विदेशी अंग्रेज़ी दुनिया में चर्चित हो जाना. 'बॉलीवुड' शब्द के साथ भी यही हुआ. उपज भले ही यह अमित खन्ना के दिमाग की हो, इसे लोकप्रिय बनाया अंग्रेज़ी (पहले विदेशी और फिर देशी) मीडिया में इसके इस्तेमाल ने. हमारी मीडिया को अपने ख़ुशामदी अन्धेपन में यह नहीं दिखा कि ज़्यादातर पश्चिमी पत्रकार इसका इस्तेमाल एक 'गाने-बजाने-नाचने से ज़्यादा कुछ जानने वाले सिनेमा' के लिए उपहासात्मक संदर्भों में करते रहे हैं.

भारतीय मीडिया की समझ से दो शब्द गायब होते जा रहे हैं - एक तो 'शर्म' और दूसरा 'तर्क' (logic). न ख़ुद को 'बॉलीवुड' कहने में उन्हें शर्म आती है और न ही उनकी समझ में ये घुसता है कि 9/11 की तर्ज पर हमारे यहाँ 11 जुलाई को '7/11' नहीं बनाया जा सकता. पर जब ख़ुद हम उपभोक्ताओं को ही फ़र्क नहीं पड़ता तो उन्हें क्यों पड़ने लगा. हमें ऐसी चीज़ों पर सोचने की फ़ुर्सत नहीं रही है. हमने अपने लिए सोचने का ठेका आजकल मीडिया को दे दिया है. वो अगर कहें बॉलीवुड तो बॉलीवुड. बस देखना ये है कि कब हम अपनी संसद को "कैपिटोल" (Capitol) कहना शुरु करते हैं और गाँधी को "घांडी" (Ghandi).

Thursday, July 12, 2007

कैंडी और शुगर

शब्दों का सफ़र भी अजीब होता है. अंग्रेज़ी 'कैंडी' (candy) को लीजिये.

ऑक्सफ़ोर्ड अंग्रेज़ी शब्दकोश के अनुसार, अंग्रेज़ी में ये पहुँचा फ़्रेंच के 'sucre candi' से 'sugar candy' बनकर. फ़्रेंच (और बाक़ी यूरोपीय भाषाओं) में आया मध्य लैटिन के 'sachharum candi' से. लैटिन ने लिया इसे अरबी 'क़न्दह' से. अरबी ने फ़ारसी 'क़न्द' से. फ़ारसी में 'क़न्द' का मतलब है सुखाया दानेदार गन्ने का रस.

और जानते हैं फ़ारसी में कहाँ से आया? संस्कृत से. संस्कृत 'खण्ड' इस पूरी यात्रा का मूल है. संस्कृत में खण्ड का एक अर्थ है 'शर्करा के दाने'. यह अर्थ खण्ड के ही दूसरे संस्कृत अर्थ 'विभाजन' या 'तोड़ने' से निकला दिखता है. हिंदी में भी चीनी के लिए 'खांड' का प्रयोग किया जाता है, जो इसी संस्कृत रूप से निकला है.

मिठाई की बात चली है तो ये जानना भी स्वादिष्ट अ.. दिलचस्प होगा कि अंग्रेज़ी के 'शुगर' (sugar) का मूल भी संस्कृत ही है. और शब्द की यात्रा भी लगभग उसी रास्ते से तय हुई. संस्कृत शर्करा -> फ़ारसी शकर -> अरबी सुक्कर -> मध्य लैटिन सैक्करम (saccharum) -> फ़्रेंच शुकर (sucre) -> अंग्रेज़ी शुगर. अधिकतर यूरोपीय भाषाओं में चीनी के लिए इसी मूल से बने रूप चलते हैं.

पर इस मामले में सिर्फ़ शब्द ही नहीं, ख़ुद शक्कर भी हिंदुस्तान की ही देन है. 'अलेक्ज़ैंडर द ग्रेट' के साथ आने वालों ने "बिना मधुमक्खियों वाले शहद" का अचरज भरा ज़िक्र किया है. पर शब्द की ही तरह शक्कर को यूरोप ले गए अरब के लोग जिन्होंने सिसिली और स्पेन में सबसे पहले गन्ना (sugarcane) उगाना शुरू किया. और यूँ हुआ दुनिया भर का मुँह मीठा.

[वर्डऑरिजिन्स पर इस चर्चा से प्रेरित]

Monday, June 18, 2007

स्ट्राइसैंड प्रभाव

[नारद विवाद पर बहुत बातें कही जा चुकी हैं. पर वक्त की कमी की वजह से इतनी अलग-अलग जगहों पर हो रही बहस को भली तरह समझ पाना मेरे लिए मुश्किल रहा. वैसे भी मेरा मानना है कि ब्लॉग बहस का प्लैटफ़ार्म नहीं है. इसका तकनीकी डिज़ाइन व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के लिए मुफ़ीद है, सामूहिक बहस के लिए नहीं. उसके लिए न्यूजग्रूप और फ़ोरम हैं. इसलिए विवाद के विषय में सीधे बहस में यहाँ नहीं पड़ना चाहता. पर इसी संदर्भ में एक बात कहने की इच्छा हुई, सो हाज़िर है.]

2003 में मशहूर अमेरिकी गायिका-अभिनेत्री बारबरा स्ट्राइसैंड ने एक फ़ोटोग्राफ़र केनेथ ऐडलमैन पर 5 करोड़ डॉलर का मुक़दमा किया था. गोपनीयता का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ऐडलमैन अपनी वेबसाइट पर से बारबरा के कैलिफ़ोर्निया तट स्थित घर की हवाई फ़ोटो हटा लें. पर्यावरण फ़ोटोग्राफ़र ऐडलमैन ने यह फ़ोटो तटीय क्षरण को रिकॉर्ड करने के एक अभियान के दौरान ली थी. स्ट्राइसैंड के घर की वह फ़ोटो जिसपर तब तक किसी ने ध्यान भी नहीं दिया था, इसके बाद पूरे वेब भर पर फैल गई थी. यानि जिस गोपनीयता के लिए उन्होंने यह किया, सबसे ज़्यादा नुकसान उसी का हुआ.

इसी प्रभाव को 2005 में माइक मैसनिक ने स्ट्राइसैंड प्रभाव का नाम दिया. परिभाषित करें तो एक ऐसा इंटरनेट प्रभाव जिसमें किसी सूचना को हटाने या सेंसर करने की कोशिश बिल्कुल उल्टा असर करती है. परिणामस्वरूप वह सूचना बहुत थोड़े समय में व्यापक रूप से प्रचारित हो जाती है.

इस प्रभाव की कुछ घरेलू मिसालें देखें.

1) सितम्बर 2003 में भारत सरकार के "सूचना-तकनीक विशेषज्ञों" ने यह निश्चित किया कि किन्हुन नाम का एक याहू ग्रूप देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त है और उसे प्रतिबंधित किया जाए. आदेश जारी हुए. इनसे भी बड़े 'एक्सपर्ट' निकले हमारे इंटरनेट सेवा प्रदाता यानि आइएसपी, जिन्होंने बजाय उस एक याहू ग्रूप को बैन करने के पूरे याहूग्रूप्स डोमेन को ही बैन कर दिया. नतीजा, जिस समूह में मुश्किल से 20 सदस्य थे और जिसकी पहुँच मुश्किल से सैंकड़ों लोगों तक भी नहीं थी, उसे पूरी दुनिया जान गई. लाखों लोग बेवजह परेशान हुए वो अलग.

2) 2006 में भारत सरकार ने फिर एक बैन का कारनामा अंजाम दिया. इस बार निशाने पर थे hinduunity.org जैसी कुछ साइटें और कुछ ब्लॉग. भारतीय इंटरनेट प्रदाताओं के तकनीकी ज्ञान में इतने सालों में कोई विशेष वृद्धि नहीं दिखी और ज़्यादातर ने फिर संबंधित ब्लॉगों की बजाय पूरे के पूरे डोमेनों (blogspot.com और typepad.com) को ही निषिद्ध कर दिया. बहरहाल, नतीजा फिर वही रहा. जिन ब्लॉगों को मुश्किल से रोज़ाना 50 हिट भी नसीब नहीं होते थे, उन्हें हज़ारों दर्शक देखने, जानने, और पढ़ने लगे. भारत से भी लोग प्रॉक्सी वेबसाइटों के इस्तेमाल से बैन के बावजूद इन्हें पढ़ते रहे. प्रतिबंधित ब्लॉगों व साइटों की विचारधारा ज़्यादा लोगों में फैली.

(सीख फिर भी नहीं मिली है शायद. अभी पिछले दिनों ऐसे ही प्रयास महाराष्ट्र में ऑर्कुट के कुछ समूहों को बैन करने के लिए चलते दिखाई दिए.)

मुद्दा यहाँ हक़ का नहीं है, हक़ के प्रभावी इस्तेमाल का है. कई मामलों में इन ब्लॉगों, वेबसाइटों, या फ़ोटोग्राफ़ों को हटा सकने का कानूनी अधिकार हटाने वालों के पास था. पर उस अधिकार का प्रयोग कर क्या उन्हें सचमुच वह हासिल हुआ जो वे चाहते थे?

लगभग सभी साइटें सामग्री हटाने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखती हैं. पर क्या आपको याद आता है कि कभी किसी ख्यातिप्राप्त साइट डायरेक्टरी, खोज इंजन, या ब्लॉग संकलक ने सिर्फ़ भाषा या विचारों के आधार पर किसी साइट को अपने इंडेक्स या सूची से हटाया हो (चीन की बात मत कीजिएगा)? क्यों ऐसा है कि करोड़ों अंग्रेज़ी ब्लॉगों में ऐसी मिसालें न के बराबर हैं? क्योंकि हटाने का आग्रह करने वाले इस प्रभाव को समझने लगे हैं. और हटाने वाली सेवाएँ जानती हैं कि ऐसा करके वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर एक बहुत बड़े वर्ग की नाराज़गी मोल लेंगी (जैसा कि अभी कुछ हफ़्तों पहले डिग ने देखा). आख़िर अगर किसी साइट या ब्लॉग को बैन करने का अधिकार उन सेवाओं के पास सुरक्षित है तो उन्हें लतियाने का अधिकार उनके दर्शकों के पास भी तो है.

Friday, June 15, 2007

1 किलो माने?

क्या आपने कभी सोचा है कि एक किलोग्राम दरसल कितना भारी होता है? कौन बताता है कि इसका ठीक-ठीक वजन क्या है? क्या आपके परचूनी वाले या सब्जी वाले के बाट ठीक एक किलो हैं? हैं या नहीं ये कैसे पता होता है? नहीं सोचा? तो सोचिये. और सोचने की फ़ुर्सत न हो तो आगे पढ़िये.

किलोग्राम एक ऐसा माप है जो किसी भौतिक स्थिरांक पर आधारित नहीं है. बल्कि उसका मानदंड पैरिस के एक वॉल्ट में रखा एक सिलिंडर है. किलोग्राम की परिभाषा के लिए क़रीब 100 साल पहले प्लैटिनम और इरीडियम के मिश्रण से एक सिलिंडर बनाया गया और घोषित किया गया कि "एक किलोग्राम का ठीक मान इस विशिष्ट सिलिंडर का द्रव्यमान है". यानि,

1 मीटर = प्रकाश द्वारा संपूर्ण निर्वात में 1/29,97,92,458 सेकंड में तय की गई दूरी
1 सेकंड = एक निश्चित भौतिक प्रतिक्रिया के 9,19,26,31,770 अन्तराल
पर,
1 किलोग्राम = पैरिस के एक वॉल्ट में रखा सिलिंडर

समझ रहे हैं मुश्किल? क्या हो अगर वो सिलिंडर किसी वजह से खत्म हो जाए? हमारे पास सिर्फ़ उसके अलग-अलग दुनिया भर में फैले प्रतिमान बाक़ी रहेंगे, जो कि समय या वातावरण की मार या कॉपी की ग़लतियों की वजह से अलग-अलग हो सकते हैं. फिर किसका किलो सही और किसका ग़लत माना जाएगा?

ऑस्ट्रेलिया के एक दल ने इस समस्या का हल किया है एक नया प्रोटोटाइप सोचकर जो एक भौतिक स्थिरांक पर आधारित होगा. वे किलोग्राम का निर्धारण इस बात से करेंगे कि एक किलोग्राम में कितने सिलिकॉन अणु होते हैं. इसके बाद किलोग्राम भी मीटर और सेकंड जैसे अन्य मापकों की तरह भौतिक स्थिरांकों के आधार पर परिभाषित हो जाएगा.

[श्लैशडॉट के जरिये]

Monday, June 11, 2007

बिल्लियाँ सिर्फ़ हिंदी समझती हैं

नहीं मानते? अमेरिका के डेव पेटन से पूछिए. वरना ख़ुद ही किसी बिल्ली से बात करके देख लीजिए. अगर बात हो तो मेरा नमस्ते कहिएगा.

Wednesday, June 06, 2007

हिंदी की विदाई की तैयारी में हिंदी अख़बार

प्रभु जोशी अपने एक विचारोत्तेजक लेख में हिंदी की योजनाबद्ध हत्या के प्रयास के बारे में बताते हैं. कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ, पर पूरा लेख पढ़ने (बल्कि सहेज के रखने) लायक है.

इस योजना का खुलासा करते हुए वे लिखते हैं,

जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अख़बार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अख़बार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेज़ी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की तो मैंने अपने पर लगने वाले अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा.
[...]
अख़बार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले चार सालों से वे अपने संकल्प में जुटे हुए हैं.
और फिर इसके तरीकों का जिक़्र करते हैं,
अंग्रेज़ों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - 'अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे बहुत अच्छी तरह से यह बात आपके गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आपका स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है. [...]
वे हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किये 'बाआसानी संहार' किया जा सकता है.

वे कहते हैं हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए ख़ात्मा करने के लिए आप अपनाइये - 'प्रॉसेस ऑफ़ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म'. अर्थात, बाहर पता ही न चले की भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है. बल्कि 'बोलने वालों' को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और मध्य प्रदेश के कुछ अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है.
[...]
इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अख़बार से उठा कर दे रहा हूँ.
"मार्निंग अवर्स के ट्रैफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट ऐडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रैफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टु एक्सिडेंट बना रहे हैं. क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं. इस प्रॉब्लम का इम्मिडियेट सोल्यूशन मस्ट है."

इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट माध्यम में पढ़ते रहने के बाद अख़बार के पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिंदी में बोले तो वह गूँगा हो जायेगा. उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ़ स्मूथ ट्रांज़िशन'. अर्थात हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म.
और आख़िर में मेरी एक दुखती रग को छेड़ते हुए लिखते हैं,
क्या हमारे हिंग्लिशियाते अख़बार इस पर कभी सोचते हैं कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पाल गुडमैन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी हैं कि हमारे रक्त में रची-बसी भाषा को उसके मास-मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं. [...] और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूँगों की नहीं अंधों की शैली में आँख मींचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है, उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिंता एक तरह का देसीवाद है जो भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हज़म नहीं कर पा रहा है.
शुक्रिया प्रभु जोशी.

[संजय के जरिये]

Friday, May 25, 2007

सीने में जलन..

23 मई 2007 - जब मानव इतिहास में पहली बार दुनिया की शहरी आबादी ग्रामीण आबादी से ज़्यादा हो गई.

हाल-ए-हिंदुस्तान

  • 1991 में शहरों में बसने वाली जनसंख्या - लगभग 26%
  • 2001 में - लगभग 28%
  • ...
  • 2026 में (अनुमानित) - लगभग 33% (पीडीएफ़ कड़ी)
  • देश के 25% ग़रीब शहरों में रहते हैं.
  • 31% शहरी ग़रीब हैं.

Tuesday, May 22, 2007

2008 - भाषाओं का वर्ष

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2008 को "भाषाओं का अंतरराष्ट्रीय वर्ष" घोषित किया है.

The General Assembly this afternoon, recognizing that genuine multilingualism promotes unity in diversity and international understanding, proclaimed 2008 the International Year of Languages.

Acting without a vote, the Assembly, also recognizing that the United Nations pursues multilingualism as a means of promoting, protecting and preserving diversity of languages and cultures globally, emphasized the paramount importance of the equality of the Organization’s six official languages (Arabic, Chinese, English, French, Russian and Spanish).

हालाँकि कुछ जानकारों के अनुसार घोषणापत्र के विस्तृत मसौदे में ज़्यादा ज़ोर संयुक्त राष्ट्र की 6 भाषाओं पर बराबरी का महत्व देने पर है. भाषाई विविधता को प्रोत्साहित करने और मृतप्राय भाषाओं के संरक्षण पर ध्यान कम है.

उम्मीद है इस भाषा-वर्ष में क़रीब आधे अरब लोगों की भाषा हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रयास में भी प्रगति होगी.

जाते-जाते एक जानकारी - क्या आपको पता है कि 21 फरवरी "अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस" है? तो अगले साल से क्यों न इस दिन ज़्यादा से ज़्यादा अपनी मातृभाषा(ओं) में बोलने, पढ़ने, और लिखने की कोशिश की जाए.

Wednesday, May 09, 2007

आज तक का सबसे बड़ा भाषाई सर्वेक्षण

भारतीय भाषाओं का पहला सर्वेक्षण 1898 में जॉर्ज ग्रियर्सन के नेतृत्व में शुरू हुआ था और 1927 में सम्पन्न हुआ. 29 साल लम्बे चले इस प्रयास में तत्कालीन भारत में बोली जाने वाली करीब 800 भाषाओं/बोलियों पर विस्तृत सर्वेक्षण किया गया था. भारतीय भाषाओं और बोलियों के बारे में हमारा ज्ञान काफ़ी हद तक उस सर्वेक्षण और उस पर बाद में किए गए ढेरों शोध प्रबंधों पर आधारित है.

ख़ुशी की बात है कि उस पहले सर्वेक्षण के लगभग 80 सालों बाद अगला और स्वतंत्र भारत का पहला भाषाई सर्वेक्षण इस महीने शुरू होने जा रहा है. यह न्यू लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया (NLSI) एक महा-अभियान है जो करीब 10 सालों तक चलेगा. 280 करोड़ रुपयों के बजट वाली इस परियोजना में लगभग 100 विश्वविद्यालय, कई संस्थाएँ, और कम से कम 10000 भाषाविद और भाषा-विशेषज्ञ योगदान देंगे. निर्देशन का काम भारतीय भाषा संस्थान के जिम्मे है.

यह सर्वेक्षण पूरी दुनिया में आज तक का सबसे बड़ा राष्ट्रीय भाषाई सर्वेक्षण है. इस परियोजना में भारत में बोली जाने वाली हर भाषा व बोली का वर्णन होगा. इसके अलावा शब्दकोश, व्याकरण रूपरेखाएँ, दृष्य-श्रव्य मीडिया, और भाषाई नक्शे भी तैयार किए जाएँगे, जिन्हें बाद में वेब पर भी उपलब्ध कराया जाएगा.

ग्रियर्सन का पहला भारतीय भाषा सर्वेक्षण एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी. पर उसमें कई कमियाँ और ख़ामियाँ रह गईं थीं, जिनमें तत्कालीन मद्रास, हैदराबाद, और मैसूर राज्यों को शामिल नहीं किया जाना और सर्वेक्षकों का पर्याप्त शिक्षित नहीं होना (ख़ासकर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में - इस काम में अधिकतर पोस्टमैनों और पटवारियों की मदद ली गई थी) मुख्य थीं. पर तमाम ख़ामियों के बावजूद यह हमारे लिए अपनी भाषाओं को जानने का एकमात्र और सबसे महत्वपूर्ण प्रामाणिक दस्तावेज़ है.

नया भारतीय भाषाई सर्वेक्षण उन कमियों से सीखकर आधुनिक भारत की बोलियों से हमें परिचित करवाएगा, ऐसा विश्वास है. आगे आने वाली कई पीढ़ियों के लिए तो सन्दर्भ ग्रन्थ होगा ही. इस महा-अभियान के लिए शुभकामनाएँ.

Friday, April 27, 2007

खड़ीबोली

अभय ने आज सुप्रसिद्ध हिंदी भाषाविज्ञानी किशोरीदास वाजपेयी की 'हिंदी शब्दानुशासन' से कुछ रोचक अंश प्रस्तुत किए हैं. हिंदी भाषाविज्ञान से संबंधित कुल नेट पर ही बहुत कम देखने को मिलता है, ब्लॉगों पर तो न के बराबर. पढ़कर मज़ा आया. उम्मीद है इस बहाने कुछ चर्चा भी होगी.

इन अंशों में खड़ीबोली के नामकरण पर पंडित वाजपेयी के विचार भी हैं. इस पर बात थोड़ी आगे बढ़ाई जाए, एक और भाषाविज्ञानी डॉ. भोलानाथ तिवारी के हवाले से.

खड़ीबोली नाम का प्रयोग दो अर्थों में होता है: एक मानक हिंदी के लिए, दूसरा दिल्ली-मेरठ के आसपास बोली जाने वाली बोली के लिए. क्योंकि यह क्षेत्र पुराना 'कुरू' जनपद है, इस दूसरे अर्थ के लिए 'कौरवी' का प्रयोग भी होता है. यह नाम इसे राहुल सांकृत्यायन ने दिया था. तिवारी कहते हैं कि अच्छा हो यदि मानक हिंदी को 'खड़ीबोली' कहा जाए और इस क्षेत्रीय बोली को 'कौरवी'.

बहरहाल, तिवारी के अनुसार खड़ीबोली के नाम के विषय में भाषाविदों में एकसम्मति नहीं है (इस बात का ज़िक्र वाजपेयी ने भी किया है) और निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसका यह नाम क्यों पड़ा.
अपनी पुस्तक "हिंदी भाषा" में वे लिखते हैं:

यह नाम कैसे पड़ा, विवाद का विषय है. मुख्य मत निम्नांकित हैं:

1) 'खड़ी' मूलतः 'खरी' है और इसका अर्थ है 'शुद्ध'. लोगों ने इसका साहित्य में प्रयोग करते समय जब अरबी-फ़ारसी शब्दों को निकालकर इसे शुद्ध रूप में प्रयुक्त करने का यत्न किया तो इसे 'खरीबोली' कहा गया जो बाद में 'खड़ीबोली' हो गया.

2) 'खड़ी' का अर्थ है जो 'खड़ी हो' अर्थात 'पड़ी' का उल्टा. पुरानी ब्रज, अवधि आदि 'पड़ी बोलियाँ' थीं, अर्थात आधुनिक काल की मानक भाषा नहीं बन सकीं. इसके विपरीत यह बोली आवश्यकता के अनुरूप खड़ी हो गई, अतः खड़ीबोली कहलाई. चटर्जी यही मानते थे.

3) कामताप्रसाद गुरू आदि के अनुसार 'खड़ी' का अर्थ है 'कर्कश'. यह बोली ब्रज की तुलना में कर्कश है, अतः यह नाम पड़ा.

4) ब्रज ओकारांतता प्रधान है, जबकि खड़ीबोली आकारांतता प्रधान. किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार खड़ीबोली की आकारांतता की 'खड़ी पाई' ने ही इसे यह नाम दिया है.

5) बेली ने 'खड़ी' का अर्थ 'प्रचलित' या 'चलती' माना, अर्थात जो ब्रज आदि को पीछे छोड़ प्रचलित हो गई.

6) गिल्क्राइस्ट ने 'खड़ी' का अर्थ 'मानक' (Standard) या 'परिनिष्ठित' किया है.

7) अब्दुल हक़ 'खड़ी' का अर्थ 'गँवारू' मानते हैं.

इनमें कौन सा मत ठीक है, कौन सा नहीं ठीक है, सनिश्चय कहना मुश्किल है. यों पुराने प्रयोगों से पहले मत को समर्थन मिलता है.

Friday, April 20, 2007

चलो न्यू यॉर्क!

आठवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन इस साल 13(शुक्र) से 15(रवि) जुलाई के बीच न्यू यॉर्क, अमेरिका में आयोजित है. ज़्यादा जानकारी के लिए सम्मेलन की वेबसाइट देखें, जिसे ब्लॉगर बालेंदु दाधीच और उनके दल ने बनाया है. और अगर आप आस-पास रहते हैं तो.. चलिए चलते हैं.

आग को हवा और ट्रॉल को भाव कभी मत दो

चौपटस्वामी कुछ दिनों से चल रहे एक अन्तरचिट्ठीय विवाद, जो मुख्यतः मोहल्ला नामक एक सामूहिक चिट्ठे को लेकर है, पूछते हैं,

इस घृणा की पैदावार का क्या किया जाए? इसका उत्तरदायी यदि मोहल्ला है तो उसका क्या उपचार होना चाहिए. किसी भी ब्लौग को नारद पर बैन करना इसका सबसे आसान उपाय दिखता है. पर मैं स्वयं उनमें से एक हूं जो सिद्धांततः प्रतिबंध के खिलाफ़ हैं. तब क्या किया जाए?

मैं इस मुद्दे पर हस्तक्षेप से बचता रहा हूँ. मुख्यतः इसलिए कि मैं इसे कोई मुद्दा ही नहीं मानता. दूसरे कारण के लिए फ़ैज की शरण लेता हूँ, "और भी हैं ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा". फिर भी अपने क़रीब 10-साला इंटरनेटीय जीवन और 5-वर्षीय ब्लॉगीय अनुभवों से निकले ये कुछ विनम्र सुझाव प्रस्तुत हैं.

पहले तो ये समझा जाए कि इंटरनेट के संदर्भ में "बैन" एक ऑक्सीमॉरोन है. इसका गम्भीर उपयोग सिर्फ़ वही करते हैं जो इंटरनेट के बारे में ज़्यादा नहीं जानते.

उसके बाद ये कि इंटरनेट पर रेटिंग के मामले में बदनाम जैसी कोई चीज़ नहीं होती. जिसके बारे में जितनी ज़्यादा बातें होंगी उसकी खोजप्रियता उतनी ही अधिक होगी.

तीसरा ये कि ब्लॉगों से ब्लॉग संकलक (नारद, हिंदीब्लॉग्स, या टेक्नोरैटी) हैं, उनसे ब्लॉग नहीं. अगर कोई ब्लॉग किसी संकलक मसलन नारद से हटाया जाता है तो उससे नारद की उपयोगिता ही कम होती है.

आख़िर में ये कि ऐसे झगड़े दिखाते हैं कि हिंदी ब्लॉग जगत अभी शैशवावस्था से बाहर नहीं निकला है. ब्लॉगों की संख्या पर्याप्त रूप से बढ़ने के बाद ऐसे झगड़ों का कोई अर्थ नहीं रहेगा.

चिट्ठों की संख्या एक सीमा से बढ़ जाने के बाद हर चिट्ठे को किसी साइट द्वारा संकलित कर पाना (और पाठक के लिए पढ़ पाना) मुश्किल होता जाता है, धीरे-धीरे असंभव. फिर लोग व्यक्तिगत पसंद के हिसाब से अपनी-अपनी फ़ीड-सूचियाँ बना लेते हैं और उन्हें किसी फ़ीड-रीडर में पढ़ते हैं. सूची आपकी, पसंद आपकी.

देर-सवेर नारद और बाक़ी संकलकों को उपयोगी रह पाने के लिए निजानुरूपता (पर्सनलाइज़ेशन) की सुविधा देने की तरफ़ बढ़ना होगा. रोज़ाना लिखे जाने वाले चिट्ठों की संख्या 200 पार होते-होते ये समस्या आने लगेगी.

तब तक के लिए, और बाद के लिए भी, इंटरनेट समूहों के गोल्डन रूल यानि गुरूमंत्र को काम में लें - ट्रॉल को कभी भाव मत दो.

अगर ट्रॉल नामक जीव से आपका परिचय न हो तो करा देता हूँ.

ट्रॉल (संज्ञा) - ट्रॉल वह व्यक्ति है जो किसी ऑनलाइन समुदाय में संवेदनशील विषयों पर जान-बूझकर अपमानजनक या भड़काऊ संदेश लिखता/ती है, इस उद्देश्य से कि कोई उस पर प्रतिक्रिया करेगा/गी.

ऐसी भड़काऊ प्रविष्टियों को भी ट्रॉल कहा जाता है (आप चाहें तो ट्रॉली कह सकते हैं) और इस क्रिया को ट्रॉलन
.

तो इस ट्रॉल को पहचानिए और अनदेखा कीजिए. ये काम आप नारद और हिंदीब्लॉग्स पर भी कर सकते हैं और किसी ऑनलाइन या ऑफ़लाइन फ़ीड-रीडर में अपनी फ़ीड-सूची बनाकर भी. मेरी राय में इससे ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत भी नहीं है.

Thursday, April 19, 2007

अस्सी के काशी

कल भुवनेश ने काशीनाथ सिंह की किताब 'काशी का अस्सी' के बारे में लिखा. कुछ अर्सा पहले हंस में नए लेखन के बारे में काशीनाथ सिंह ने एक लेख लिखा था. उसके कुछ अंश नीचे हैं.

मेरा अनुभव बताता है कि कहानी यथार्थ का भाषिक अनुवाद नहीं है। यदि कहानी का यथार्थ वस्तु-जगत का हू-ब-हू यथार्थ हो तो वह कहानी एकरस, उबाऊ और निर्जीव हुआ करती है। कहानी को यदि जीवित और आकर्षक बनाए रखना है तो यथार्थ से मुक्ति हमारी रचनात्मक आवश्यकता है। हम अपने पंख फैलाना चाहते हैं, उड़ना चाहते हैं लेकिन हमारे पैरों में पत्थर की तरह यथार्थ बंधा है। कभी-कभी हम अपने हाथ-पांव फेंकने को ही उड़ना समझ बैठते हैं। लेकिन यह हम समझते हैं, पाठक नहीं। लिहाजा, हम यह मानकर चलें कि यथार्थ कहानी नहीं होता, कहानी में `यथार्थ' होता है। यथार्थ में छेड़छाड़ के बिना गद्य तो संभव है, गल्प नहीं।

गल्प के रुचिकर होने को वे उसकी पहली आवश्यकता मानते हैं. ख़ासकर आप अगर केवल दूसरे लेखकों के लिए नहीं बल्कि पाठकों के लिए लिखते हों. कहते हैं.
...यदि हम लेखक हैं और साहित्य में ही जीने-मरने के लिए अभिशप्त हैं तो बात दूसरी है लेकिन यदि हम पाठक हैं तो आपकी या किसी की कहानी को पढ़ना हमारी मज़बूरी नहीं है।

और जो पंक्तियाँ मुझे सबसे प्रभावी लगीं
जब भी विचारों की लड़ाई रचना के माध्यम से सचेत होकर लड़ी जाती है तो लड़ाई का चाहे जो होता हो, रचनात्मकता का क्षरण ही होता है।

Wednesday, April 11, 2007

अपनी भाषा में मैं स्मार्ट हूँ

प्रवासियों के सबसे बड़े दर्दों में भाषा का दर्द होता है. पर भारतीय आप्रवासियों द्बारा ये बात उतनी मुखरता से नहीं उठती नज़र आती, कम से कम सामूहिक मंचों पर. कारण हमारी ख़ुशफ़हमी हो या हीनताबोध या फिर देश से साथ ढोकर लाया हुआ अंग्रेज़ी के ऊँचे स्टेटस का ठप्पा, पर खुले तौर पर बहुत कम आधुनिक भारतीय आप्रवासी मानते हैं कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी नहीं.

ड्रैगन टोडोरोविक जोकि एक सर्बियाई पत्रकार हैं 1995 में युगोस्लाविया से जाकर कनाडा बस गये थे. उन्होंने हाल में एक रेडियो शो (In My Language I am Smart - The Immigrant Song) में अपने भाषा अनुभव का ज़िक्र किया. इसकी ऑडियो क्लिप उनकी साइट पर रखी है. सुनने लायक है. बड़ी सटीकता से उन्होंने इस नब्ज़ पर हाथ रखा है. अपनी साइट पर इससे जुड़े एक नोट में वे लिखते हैं (मूल अंग्रेज़ी में ही उद्धृत कर रहा हूँ, अगर किसी को अनुवाद चाहिए तो बताएँ),

I realized quickly that I had a problem. It was not so much with my vocabulary, or my spelling­—on the contrary, that part of my education was very good—but with the precise meaning and finesse of expression.
[...]
Language is acquired with its sound, and the sounds I had picked from records and movies were harsh, aggressive, and presented me in a very different light from who I was and am. Suddenly I realized that somewhere in the process of acquiring the tone of modern English I had lost my identity. It was painful to realize that in my language I was smart, but I sounded stupid in English. Example: while walking with my Canadian friend one day by a church, he started talking about the architecture of that particular building, and while I wanted to say a few things about how I liked the Gothic details on the arch at the entrance, and how I admired the intelligent choice of stones, all I could squeeze out was, “Yeah, it’s cool”.

Acquired meaning is superficial. Sound puts word into context, but the deeper shades of expression are not learned. I responded the way that Clint Eastwood, or some other action hero, would in one of their roles. Back in Serbian language I was connoisseur of arts; in my newly acquired language I was a cop.
[...]
The process of learning a new language is not rounded and simple: at first, it is not the language as a whole that is acquired, but a series of foreign words is superimposed onto mother's tongue. Unavoidably, one has to go through a mutation that is both painful and funny. This piece is an exploration of the immigrant's experience.

वे पूछते हैं,
Where do I belong after going through this experience?

भारतीयों की सोचें तो ये सवाल केवल आप्रवासियों का नहीं है. लगभग सभी अंग्रेज़ी-शिक्षित भारतीय अंग्रेज़ी में बोलकर अपनी बात भली-भाँति और सटीकता से समझा पाने के मामले में अक्षम हैं. और अगर बात किसी गम्भीर विषय पर हो तो पूछिये मत. आप्रवासियों की तो ख़ैर मज़बूरी है. देशवासियों के पास क्या जवाब है?

[लैंग्वेजहैट के जरिये]

Monday, April 09, 2007

क्या सौन्दर्यबोध परिस्थिति से प्रभावित होता है?

धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटाकर देखो
- निदा फ़ाज़ली
वाशिंगटन पोस्ट ने जानना चाहा,
सुंदरता क्या है? ऐसा कुछ जिसे मापा जा सके (बकौल गॉट्फ़्राइड लेबनीज़), या केवल एक राय (बकौल डेविड ह्यूम), या फिर जैसा इमैन्युएल कांट ने कहा था कि थोड़ी थोड़ी दोनों, पर उसपर दर्शक की तात्कालिक मानसिक अवस्था का भी प्रभाव होता है?
इस सवाल का बेहतर जवाब जानने के लिए पोस्ट ने एक मज़ेदार प्रयोग किया.

वाशिंगटन के व्यस्ततम मेट्रो स्टेशनों में से एक है ल'फ़ाँत प्लाज़ा. यहाँ अक्सर सुबह के व्यस्त घंटों के दौरान स्थानीय संगीतवादक वायलिन, गिटार या पियानो बजाते सुनाई दे जाते हैं. गुज़रने वाले अपनी इच्छानुसार डॉलर या चिल्लर इनकी खुली पेटी में छोड़ जाते हैं.

वाशिंगटन पोस्ट ने वहाँ बिठाया (बल्कि खड़ा किया) जोशुआ बेल को. जोशुआ दुनिया भर में ख्यातिप्राप्त वायलिन वादकों में से हैं. इस प्रयोग से तीन दिन पहले ही उन्होंने बोस्टन के सिम्फ़नी हॉल में वायलिनवादन किया था और वहाँ ठीक-ठाक सीटें भी 100 डॉलर में बिकी थीं. पोस्ट ने उनसे स्टेशन के बाहर वायलिन बजाने का आग्रह किया. ठीक उसी तरह जैसे आम स्थानीय कलाकार खड़े होकर बजाते हैं - अकेले, बिना किसी ताम-झाम के, पैसों के लिए पेटी खुली रखकर.

देखना यह था कि क्या एक विश्व-स्तरीय कलाकार, अद्भुत संगीत, और एक उत्तम वाद्य-यन्त्र का मिश्रण एक आम, काम पर जा रहे कम्यूटर के सौन्दर्यबोध को प्रभावित करेगा. क्या एक साधारण माहौल और असुविधाजनक समय में सौंदर्य बरक़रार रहेगा?

क्या हुआ यह विस्तार से जानने के लिए वाशिंगटन पोस्ट का आलेख पढ़िये. घटना की विडियो रिकॉर्डिंग भी वहीं उपलब्ध है.

Thursday, April 05, 2007

देसीपंडित सर्वेक्षण


आपमें से कुछ को शायद पता हो कि देसीपंडित ने हाल ही में एक पाठक सर्वेक्षण करवाया था. पैट्रिक्स ने आज उसके परिणामों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है.

सर्वेक्षण का एक प्रश्न जो हिंदी से संबन्धित था, उसमें पूछा गया था कि आप कितनी बार देसीपंडित का हिंदी अनुभाग देखते हैं? इसके जवाब में 73% लोगों का कहना था 'कभी नहीं'. ज़ाहिर सी बात है. आख़िर मुख्यतः अंग्रेज़ी की साइट है. पहले पन्ने पर सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ब्लॉग ही आते हैं. अंग्रेज़ी में कुल ब्लॉगों की संख्या भी ज़्यादा है, देसीपंडित पर ब्लॉग कवर करने वालों की भी, और वहाँ चर्चित ब्लॉगों की भी. फिर उसमें बाकी भाषाओं के पाठक मिला लें तो 73% कुछ निराशाजनक नहीं लगता.

उल्टे मुझे ये जानकर आश्चर्य-मिश्रित ख़ुशी हुई कि देसीपंडित को पढ़ने वालों में से 27% ऐसे हैं जिन्होने कभी न कभी हिंदी अनुभाग देखा है. इनमें से 9% इसे कभी-कभी देख लेते हैं और 3% अक्सर पढ़ते हैं.

तो चलिए एक तुरत-फ़ुरत का उपसर्वेक्षण करते हैं - आप उन 3%(अक्सर पढ़नेवालों) में हैं, या 73% (कभी नहीं देखने वालों) में या कहीं बीच में?

Sunday, April 01, 2007

अप्रैल फूल

अप्रैल फूल यानी चेरी ब्लॉसम या सकूरा - जो साल में केवल हफ़्ते भर खिलते हैं.

Thursday, March 29, 2007

तकनीक लोगों के लिए

वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम ने 2006-07 के लिए वैश्विक सूचना तकनीक रिपोर्ट जारी कर दी है. यह रिपोर्ट विश्व के 122 देशों के लिए 'नेटवर्क तैयारी सूचकांक' (NRI) बताती है जो कि 3 घटक सूचकांकों से बना है -
1) देश या समाज द्वारा उपलब्ध कराया गया 'सूचना और संवाद तकनीक' (ICT) का माहौल
2) समाज के प्रमुख हिस्सेदारों की तैयारी (जनता, व्यापार, सरकार)
3) इन हिस्सेदारों में सूचना और संवाद तकनीक का प्रयोग

तो ख़बर यह है कि अमेरिका तकनीकी सिरमौर नहीं रहा. बल्कि आस-पास भी नहीं. पिछले साल के पहले से अब वह सीधे 7वें स्थान पर आ गया है. और अपने आप को आइटी महाशक्ति समझने वाला भारत 44वें स्थान पर है, पिछले साल से 4 स्थान नीचे.

यह रहे शीर्ष 10 देश, ख़ासकर उनके लिए जो कहते हैं अँग्रेज़ी में शिक्षा के बिना तकनीकी तरक्की संभव नहीं.

1. डेनमार्क
2. स्वीडन
3. सिंगापुर
4. फ़िनलैंड
5. स्विटज़रलैंड
6. नीदरलैंड्स
7. अमेरिका
8. आइसलैंड
9. यूके
10. नॉर्वे

भाषा के संदर्भ में ये आँकड़े अगर कुछ बताते हैं तो यह कि तकनीक को हर एक तक पहुँचाने के लिए तकनीक का स्थानीयकरण ज़रूरी है. हमारे यहाँ नीति उल्टी तरफ़ से चल रही दिखती है. हम लोगों का विदेशीकरण करने में लगे हैं.

Monday, March 26, 2007

आज मेरी क़िस्मत अच्छी है

अगर आपने गूगल का हिंदी खोजक इस्तेमाल किया हो तो आपकी नज़र उस बटन पर ज़रूर पड़ी होगी जो कहता है - 'आज मेरी क़िस्मत अच्छी है'. अगर आप कुछ लिखकर 'खोज' की बजाय यह बटन दबाते हैं तो गूगल सीधा आपको सबसे संगत परिणाम (यानि जो परिणाम पृष्ठ पर सबसे ऊपर हो) की साइट पर भेज देता है.

करीब 5-6 साल पहले जब मैंने गूगल के जुमले "I'm Feeling Lucky" का यह अनुवाद किया था तब हिंदी खोज की दुनिया बिल्कुल सुनसान थी. स्वामित्वधारी फ़ॉण्टों पर बनी कुछ हिंदी साइटें चल रही थीं और उनमें खोज पाने की तरकीब किसी के पास नहीं थी. बीबीसी हिंदी के अलावा कोई प्रमुख साइट यूनिकोड में नहीं थी. गूगल ख़ुद भी यूनिकोड समर्थन के साथ प्रयोग ही कर रहा था और नतीजतन यह अनुवाद भी मुझे रोमन लिपि (आइट्रांस) में करना पड़ा था.

तब से अब तक इंटरनेट पर हिंदी की गंगा में बहुत बाइट्स बह चुके हैं. ऐसे खोज इंजन उपलब्ध हैं जो न केवल यूनिकोड बल्कि सभी मुख्य हिंदी कूटकरणों को पहचान सकते हैं और उन्हें सूचीकृत या इंडेक्स कर सकते हैं. और सबसे बड़ी बात जिसका ज़िक्र मैंने कुछ दिन पहले किया था कि अब ढूँढ़ने को भी बहुत कुछ है.

इस समय छह ऐसी हिंदी खोज साइटें हैं जो अपना खोज इंजन (खोजक) इस्तेमाल करती हैं - गूगल, लाइव (या एमएसएन), याहू, भ्रमर, रफ़्तार, और गुरूजी. आइए इन हिंदी खोजकों द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सुविधाओं और इनके तकनीकी परिमाणों पर एक तुरत तुलनात्मक नज़र डालें.

हिंदी टाइप सुविधा
गूगल - नहीं
लाइव - नहीं
याहू - नहीं
भ्रमर - नहीं
रफ़्तार - हाँ
गुरूजी - हाँ
-
हालाँकि धीरे धीरे यह सुविधा अप्रासंगिक होती जाएगी, इस वक़्त इसके बड़े फ़ायदे हैं. दुख की बात यह कि जहाँ यह सुविधा उपलब्ध है वहाँ भी फ़ायरफ़ॉक्स पर काम नहीं करती.

वर्तनी सुझाव
गूगल - नहीं
लाइव - नहीं
याहू - नहीं
भ्रमर - नहीं
रफ़्तार - हाँ
गुरूजी - हाँ

प्रति संचय
गूगल - हाँ
लाइव - हाँ
याहू - हाँ
भ्रमर - नहीं
रफ़्तार - हाँ
गुरूजी - हाँ

ग़ैर-यूनिकोड सूचन (इंडेक्सिंग)
गूगल - हाँ
लाइव - हाँ
याहू - हाँ
भ्रमर - नहीं
रफ़्तार - हाँ
गुरूजी - हाँ
-
भ्रमर के अलावा सभी खोजक अब अयूनिकोडित सामग्री को सूचीबद्ध करने में समर्थ हैं

हिंदी अंतरपटल
गूगल - हाँ
लाइव - हाँ
याहू - नहीं
भ्रमर - हाँ
रफ़्तार - हाँ
गुरूजी - हाँ
-
यह एक आवश्यक परिमाण है और एक तर्क हो सकता है कि याहू को इस वजह से हिंदी का खोजक माना ही न जाए.

सूचक आकार (नमूना खोजशब्द - "हिन्दी")
गूगल - 6430 हज़ार
लाइव - 356 हज़ार
याहू - 418 हज़ार
भ्रमर - 98
रफ़्तार - 96 हज़ार
गुरूजी - 62 हज़ार
-
सूचीबद्ध पन्नों की संख्या एक बहुत महत्वपूर्ण मानदंड है. यहाँ गूगल स्पष्ट रूप से बहुत आगे है. और भ्रमर लगभग इस दौड़ से बाहर ही हो गया है.

तेज़ी (नमूना खोजशब्द - "हिन्दी")
गूगल - 0.018 सेकेंड/हज़ार-शब्द
लाइव - (खोजसमय अनुपलब्ध)
याहू - 0.21 सेकेंड/हज़ार-शब्द
भ्रमर - (सूचक बहुत छोटा)
रफ़्तार - 1.875 सेकेंड/हज़ार-शब्द
गुरूजी - (खोजसमय अनुपलब्ध)
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लाइव और गुरुजी के लिए हालाँकि खोज समय आँकड़े उपलब्ध नहीं है, पर वे काफ़ी तेज़ दिखाई देते हैं. गूगल सबसे तेज़ है और लाइव उससे बहुत पीछे नहीं.

ये कुछ महत्वपूर्ण परिमाण थे और एक सरसरी नज़र बताती है कि गूगल हिंदी खोज में भी नम्बर 1 है. पर साथ ही यह भी कि गुरुजी जैसे भारतीय खोजक उन बातों में बेहतर हैं जो एक हिन्दीभाषी के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं.

पर जो बात सबसे अच्छे खोजक को बाक़ियों से अलग करेगी वह है परिणामों की संगतता. इसके लिए बड़ा सूचक (इंडेक्स) होना महत्वपूर्ण है पर उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है खोज एल्गॉरिद्म - वह फ़ॉर्मूला जो किसी परिणाम को ऊपर दिखाता है और किसी को नीचे. और किसी को सबसे ऊपर. मुझे इस समय गूगल इस मामले में सबसे आगे दिखता है, पर बेहतर होगा कि आप इसे ख़ुद मापें. तो जब जब कुछ खोजने पर आपको इच्छित परिणाम सबसे ऊपर दिखाई दे, बोलिए आज मेरी क़िस्मत अच्छी है. और आप जल्दी ही अपनी पसंद का इंजन पा जाएँगे.

Wednesday, March 21, 2007

RMIM पुरस्कार घोषित

करीब महीने भर चली नामांकन और अंकन प्रक्रिया के बाद वर्ष 2006 के RMIM पुरस्कार सामने हैं।

ओमकारा को 'साल का एल्बम' चुना गया है. विवरण और अन्य श्रेणियाँ पुरस्कार वेबसाइट पर देखे जा सकते हैं।

प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले वोटरों और अन्य तमाम सहयोगियों का धन्यवाद।

Wednesday, March 14, 2007

वेब पर हिंदी - एक दो तीन होने की तैयारी

वेब पर हिंदी सामग्री अब उस अवस्था में पहुँच गई है जिसे अंग्रेज़ी में 'क्रिटिकल मास' कहा जाता है. और पिछले कुछ महीने इसमें बहुत मददगार रहे हैं (यूँ वेब पर महीने सालों के बराबर होते हैं). इस अर्से में हिंदी में उपलब्ध साइटों, सुविधाओं, और जानकारी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. कुछ मुख्य उदाहरण देखें, जिनमें से कई तो पिछले महीने में ही जारी हुए हैं:

इनके अलावा पुराने चिट्ठों और साइटों पर भी सामग्री तेज़ी से बढ़ रही है.

यानि वह समय आ गया है जब हिंदी सामग्री बुकमार्कों से उफन कर बाहर निकल रही है और सर्च इंजनों की दरकार महसूस होने लगी है. कंटेंट निर्माण के साथ साथ विकेंद्रीकरण भी बढ़ रहा है जो कि न केवल विविधता के लिए अच्छा है बल्कि इंटरनेट के मूल चरित्र के पास भी है, और इसीलिए अवश्यंभावी भी. अच्छे खोजक इस चरित्र को विकसित करने में काफ़ी सहायक होते हैं.

यूनिकोड अब वेब पर हिंदी सामग्री के लिए वैसा ही मानक बन चुका है जैसा अंग्रेज़ी के लिए ASCII है. लगभग सभी नई साइटें इसी कूटकरण में बन रही हैं. पुरानी साइटों को इसमें बदला जा रहा है (मसलन एनआइसी की बनाई साइटें और अभिव्यक्ति-अनुभूति). और जो साइटें अपने स्वामित्वधारी फ़ॉण्ट इस्तेमाल कर रही हैं (उदा. दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर), वे भी अब बड़ी आसानी से ऑन-द-फ़्लाई (हाथों-हाथ) यूनिकोड में बदली जा सकती हैं. सर्च इंजन भी इन्हें खोज पा रहे हैं. कुल मिलाकर अब इस सिलसिले में मानक कोई बाधा नहीं रहा है.

इस अवस्था के बाद खोजकों का योगदान महत्वपूर्ण हो जाता है. ये हिंदी के प्रयोक्ता के लिए तो जीवन आसान बनाएँगे ही, इनके जरिये अपनी सामग्री तक आसान पहुँच व्यापारों, संस्थाओं, और संगठनों को भी हिंदी में साइटें बनाने के लिए प्रेरित करेंगी. जहाँ प्रयोक्ता और प्रस्तोता दोनों एक दूसरे को संपुष्ट करेंगे, खोजकों की भूमिका एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक की होगी. और इसीलिये अच्छे हिंदी खोजकों की ज़रूरत बहुत बढ़ जाती है.

गूगल ने अपनी हिंदी खोज में हाल में सुधार किए हैं और नया इंजन गुरूजी भी बड़ी जल्दी लोकप्रिय हो रहा है. इसके अलावा इस क्षेत्र में शुरुआती कदम उठाने वाला रफ़्तार भी लगातार दौड़ में है. ये सभी बहुत अच्छे प्रयास हैं. और हालाँकि हिंदी सर्च की एल्गॉरिद्म को अभी काफ़ी आगे जाना है, वेब पर कहीं भी उड़ने और गुम न होने की आज़ादी अब हिंदी टेक्स्ट के पास है. तो कमर कस लीजिए, यहाँ से सफ़र तेज़ होने वाला है.

Wednesday, February 21, 2007

2006 के हिंदी फ़िल्म संगीत के लिए पुरस्कार

अगर आप नए हिंदी फ़िल्म संगीत में रुचि रखते हैं तो 2006 के RMIM पुरस्कार में अपनी प्रविष्टि भेजिए. नामांकन 3 मार्च तक खुला है. आप अपने मनपसंद एलबम और गाने बिना किसी पूर्वनियोजित शॉर्टलिस्ट से बंधित हुए चुन सकते हैं.

इस पुरस्कार के बारे में अधिक जानने के लिए गीतायन ब्लॉग देखें.