Wednesday, June 06, 2007

हिंदी की विदाई की तैयारी में हिंदी अख़बार

प्रभु जोशी अपने एक विचारोत्तेजक लेख में हिंदी की योजनाबद्ध हत्या के प्रयास के बारे में बताते हैं. कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ, पर पूरा लेख पढ़ने (बल्कि सहेज के रखने) लायक है.

इस योजना का खुलासा करते हुए वे लिखते हैं,

जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अख़बार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अख़बार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेज़ी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की तो मैंने अपने पर लगने वाले अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा.
[...]
अख़बार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले चार सालों से वे अपने संकल्प में जुटे हुए हैं.
और फिर इसके तरीकों का जिक़्र करते हैं,
अंग्रेज़ों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - 'अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे बहुत अच्छी तरह से यह बात आपके गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आपका स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है. [...]
वे हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किये 'बाआसानी संहार' किया जा सकता है.

वे कहते हैं हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए ख़ात्मा करने के लिए आप अपनाइये - 'प्रॉसेस ऑफ़ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म'. अर्थात, बाहर पता ही न चले की भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है. बल्कि 'बोलने वालों' को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और मध्य प्रदेश के कुछ अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है.
[...]
इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अख़बार से उठा कर दे रहा हूँ.
"मार्निंग अवर्स के ट्रैफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट ऐडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रैफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टु एक्सिडेंट बना रहे हैं. क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं. इस प्रॉब्लम का इम्मिडियेट सोल्यूशन मस्ट है."

इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट माध्यम में पढ़ते रहने के बाद अख़बार के पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिंदी में बोले तो वह गूँगा हो जायेगा. उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ़ स्मूथ ट्रांज़िशन'. अर्थात हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म.
और आख़िर में मेरी एक दुखती रग को छेड़ते हुए लिखते हैं,
क्या हमारे हिंग्लिशियाते अख़बार इस पर कभी सोचते हैं कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पाल गुडमैन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी हैं कि हमारे रक्त में रची-बसी भाषा को उसके मास-मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं. [...] और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूँगों की नहीं अंधों की शैली में आँख मींचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है, उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिंता एक तरह का देसीवाद है जो भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हज़म नहीं कर पा रहा है.
शुक्रिया प्रभु जोशी.

[संजय के जरिये]

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

सही लिखा! बधाई!

azdak said...

बहुत सही.. इसपर कोई क्‍या कहे.. पूरी किताब का विषय है.. जिसे अंतत: पढने के लिए लोग उसके अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाने का सुझाव देंगे.

अनुनाद सिंह said...

लेखक के विचार अत्यन्त गहन और सटीक हैं। हिन्दीभाषियों की संवेदनहीनता खतरे के निशान को पार कर गयी है। लेखक के विचारों को सबके सामने लाने के लिये साधुवाद!

अनुनाद सिंह said...

हिन्दी को बर्बाद करने के षडयन्त्र पर पंचतन्त्र की वह कहानी याद आ रही है जिसमे अपने कन्धे पर बकरे को ले जाते हुए एक भोले आदमी को तीन चोर(उचक्के) ठगते हैं। वहाँ बकरे को बार-बार 'कुता' कहकर उस भोले व्यक्ति को वह बकरा फेक देने की स्थिति में ला दिया गया; यहाँ यह झूठ फैलाया जा रहा है कि 'हिन्दी में अंगरेजी शब्दों के प्रयोग से आम आदमी आसानी से समझ जाता है।' यहाँ पर साजिस हिन्दी फेककर अंगरेजी लादने की है।

असली बुद्धू वह है जिससे उसके अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मरवायी जा सके।