कल भुवनेश ने काशीनाथ सिंह की किताब 'काशी का अस्सी' के बारे में लिखा. कुछ अर्सा पहले हंस में नए लेखन के बारे में काशीनाथ सिंह ने एक लेख लिखा था. उसके कुछ अंश नीचे हैं.
मेरा अनुभव बताता है कि कहानी यथार्थ का भाषिक अनुवाद नहीं है। यदि कहानी का यथार्थ वस्तु-जगत का हू-ब-हू यथार्थ हो तो वह कहानी एकरस, उबाऊ और निर्जीव हुआ करती है। कहानी को यदि जीवित और आकर्षक बनाए रखना है तो यथार्थ से मुक्ति हमारी रचनात्मक आवश्यकता है। हम अपने पंख फैलाना चाहते हैं, उड़ना चाहते हैं लेकिन हमारे पैरों में पत्थर की तरह यथार्थ बंधा है। कभी-कभी हम अपने हाथ-पांव फेंकने को ही उड़ना समझ बैठते हैं। लेकिन यह हम समझते हैं, पाठक नहीं। लिहाजा, हम यह मानकर चलें कि यथार्थ कहानी नहीं होता, कहानी में `यथार्थ' होता है। यथार्थ में छेड़छाड़ के बिना गद्य तो संभव है, गल्प नहीं।
गल्प के रुचिकर होने को वे उसकी पहली आवश्यकता मानते हैं. ख़ासकर आप अगर केवल दूसरे लेखकों के लिए नहीं बल्कि पाठकों के लिए लिखते हों. कहते हैं.
...यदि हम लेखक हैं और साहित्य में ही जीने-मरने के लिए अभिशप्त हैं तो बात दूसरी है लेकिन यदि हम पाठक हैं तो आपकी या किसी की कहानी को पढ़ना हमारी मज़बूरी नहीं है।
और जो पंक्तियाँ मुझे सबसे प्रभावी लगीं
जब भी विचारों की लड़ाई रचना के माध्यम से सचेत होकर लड़ी जाती है तो लड़ाई का चाहे जो होता हो, रचनात्मकता का क्षरण ही होता है।
1 comment:
भई विनय जी,
आपकी खोज-खोजकर लाई चीज़ें सचमुच विविधता का एक अच्छा स्वाद बनाये रहती हैं। धन्यवाद।
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