Friday, April 27, 2007

खड़ीबोली

अभय ने आज सुप्रसिद्ध हिंदी भाषाविज्ञानी किशोरीदास वाजपेयी की 'हिंदी शब्दानुशासन' से कुछ रोचक अंश प्रस्तुत किए हैं. हिंदी भाषाविज्ञान से संबंधित कुल नेट पर ही बहुत कम देखने को मिलता है, ब्लॉगों पर तो न के बराबर. पढ़कर मज़ा आया. उम्मीद है इस बहाने कुछ चर्चा भी होगी.

इन अंशों में खड़ीबोली के नामकरण पर पंडित वाजपेयी के विचार भी हैं. इस पर बात थोड़ी आगे बढ़ाई जाए, एक और भाषाविज्ञानी डॉ. भोलानाथ तिवारी के हवाले से.

खड़ीबोली नाम का प्रयोग दो अर्थों में होता है: एक मानक हिंदी के लिए, दूसरा दिल्ली-मेरठ के आसपास बोली जाने वाली बोली के लिए. क्योंकि यह क्षेत्र पुराना 'कुरू' जनपद है, इस दूसरे अर्थ के लिए 'कौरवी' का प्रयोग भी होता है. यह नाम इसे राहुल सांकृत्यायन ने दिया था. तिवारी कहते हैं कि अच्छा हो यदि मानक हिंदी को 'खड़ीबोली' कहा जाए और इस क्षेत्रीय बोली को 'कौरवी'.

बहरहाल, तिवारी के अनुसार खड़ीबोली के नाम के विषय में भाषाविदों में एकसम्मति नहीं है (इस बात का ज़िक्र वाजपेयी ने भी किया है) और निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसका यह नाम क्यों पड़ा.
अपनी पुस्तक "हिंदी भाषा" में वे लिखते हैं:

यह नाम कैसे पड़ा, विवाद का विषय है. मुख्य मत निम्नांकित हैं:

1) 'खड़ी' मूलतः 'खरी' है और इसका अर्थ है 'शुद्ध'. लोगों ने इसका साहित्य में प्रयोग करते समय जब अरबी-फ़ारसी शब्दों को निकालकर इसे शुद्ध रूप में प्रयुक्त करने का यत्न किया तो इसे 'खरीबोली' कहा गया जो बाद में 'खड़ीबोली' हो गया.

2) 'खड़ी' का अर्थ है जो 'खड़ी हो' अर्थात 'पड़ी' का उल्टा. पुरानी ब्रज, अवधि आदि 'पड़ी बोलियाँ' थीं, अर्थात आधुनिक काल की मानक भाषा नहीं बन सकीं. इसके विपरीत यह बोली आवश्यकता के अनुरूप खड़ी हो गई, अतः खड़ीबोली कहलाई. चटर्जी यही मानते थे.

3) कामताप्रसाद गुरू आदि के अनुसार 'खड़ी' का अर्थ है 'कर्कश'. यह बोली ब्रज की तुलना में कर्कश है, अतः यह नाम पड़ा.

4) ब्रज ओकारांतता प्रधान है, जबकि खड़ीबोली आकारांतता प्रधान. किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार खड़ीबोली की आकारांतता की 'खड़ी पाई' ने ही इसे यह नाम दिया है.

5) बेली ने 'खड़ी' का अर्थ 'प्रचलित' या 'चलती' माना, अर्थात जो ब्रज आदि को पीछे छोड़ प्रचलित हो गई.

6) गिल्क्राइस्ट ने 'खड़ी' का अर्थ 'मानक' (Standard) या 'परिनिष्ठित' किया है.

7) अब्दुल हक़ 'खड़ी' का अर्थ 'गँवारू' मानते हैं.

इनमें कौन सा मत ठीक है, कौन सा नहीं ठीक है, सनिश्चय कहना मुश्किल है. यों पुराने प्रयोगों से पहले मत को समर्थन मिलता है.

Friday, April 20, 2007

चलो न्यू यॉर्क!

आठवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन इस साल 13(शुक्र) से 15(रवि) जुलाई के बीच न्यू यॉर्क, अमेरिका में आयोजित है. ज़्यादा जानकारी के लिए सम्मेलन की वेबसाइट देखें, जिसे ब्लॉगर बालेंदु दाधीच और उनके दल ने बनाया है. और अगर आप आस-पास रहते हैं तो.. चलिए चलते हैं.

आग को हवा और ट्रॉल को भाव कभी मत दो

चौपटस्वामी कुछ दिनों से चल रहे एक अन्तरचिट्ठीय विवाद, जो मुख्यतः मोहल्ला नामक एक सामूहिक चिट्ठे को लेकर है, पूछते हैं,

इस घृणा की पैदावार का क्या किया जाए? इसका उत्तरदायी यदि मोहल्ला है तो उसका क्या उपचार होना चाहिए. किसी भी ब्लौग को नारद पर बैन करना इसका सबसे आसान उपाय दिखता है. पर मैं स्वयं उनमें से एक हूं जो सिद्धांततः प्रतिबंध के खिलाफ़ हैं. तब क्या किया जाए?

मैं इस मुद्दे पर हस्तक्षेप से बचता रहा हूँ. मुख्यतः इसलिए कि मैं इसे कोई मुद्दा ही नहीं मानता. दूसरे कारण के लिए फ़ैज की शरण लेता हूँ, "और भी हैं ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा". फिर भी अपने क़रीब 10-साला इंटरनेटीय जीवन और 5-वर्षीय ब्लॉगीय अनुभवों से निकले ये कुछ विनम्र सुझाव प्रस्तुत हैं.

पहले तो ये समझा जाए कि इंटरनेट के संदर्भ में "बैन" एक ऑक्सीमॉरोन है. इसका गम्भीर उपयोग सिर्फ़ वही करते हैं जो इंटरनेट के बारे में ज़्यादा नहीं जानते.

उसके बाद ये कि इंटरनेट पर रेटिंग के मामले में बदनाम जैसी कोई चीज़ नहीं होती. जिसके बारे में जितनी ज़्यादा बातें होंगी उसकी खोजप्रियता उतनी ही अधिक होगी.

तीसरा ये कि ब्लॉगों से ब्लॉग संकलक (नारद, हिंदीब्लॉग्स, या टेक्नोरैटी) हैं, उनसे ब्लॉग नहीं. अगर कोई ब्लॉग किसी संकलक मसलन नारद से हटाया जाता है तो उससे नारद की उपयोगिता ही कम होती है.

आख़िर में ये कि ऐसे झगड़े दिखाते हैं कि हिंदी ब्लॉग जगत अभी शैशवावस्था से बाहर नहीं निकला है. ब्लॉगों की संख्या पर्याप्त रूप से बढ़ने के बाद ऐसे झगड़ों का कोई अर्थ नहीं रहेगा.

चिट्ठों की संख्या एक सीमा से बढ़ जाने के बाद हर चिट्ठे को किसी साइट द्वारा संकलित कर पाना (और पाठक के लिए पढ़ पाना) मुश्किल होता जाता है, धीरे-धीरे असंभव. फिर लोग व्यक्तिगत पसंद के हिसाब से अपनी-अपनी फ़ीड-सूचियाँ बना लेते हैं और उन्हें किसी फ़ीड-रीडर में पढ़ते हैं. सूची आपकी, पसंद आपकी.

देर-सवेर नारद और बाक़ी संकलकों को उपयोगी रह पाने के लिए निजानुरूपता (पर्सनलाइज़ेशन) की सुविधा देने की तरफ़ बढ़ना होगा. रोज़ाना लिखे जाने वाले चिट्ठों की संख्या 200 पार होते-होते ये समस्या आने लगेगी.

तब तक के लिए, और बाद के लिए भी, इंटरनेट समूहों के गोल्डन रूल यानि गुरूमंत्र को काम में लें - ट्रॉल को कभी भाव मत दो.

अगर ट्रॉल नामक जीव से आपका परिचय न हो तो करा देता हूँ.

ट्रॉल (संज्ञा) - ट्रॉल वह व्यक्ति है जो किसी ऑनलाइन समुदाय में संवेदनशील विषयों पर जान-बूझकर अपमानजनक या भड़काऊ संदेश लिखता/ती है, इस उद्देश्य से कि कोई उस पर प्रतिक्रिया करेगा/गी.

ऐसी भड़काऊ प्रविष्टियों को भी ट्रॉल कहा जाता है (आप चाहें तो ट्रॉली कह सकते हैं) और इस क्रिया को ट्रॉलन
.

तो इस ट्रॉल को पहचानिए और अनदेखा कीजिए. ये काम आप नारद और हिंदीब्लॉग्स पर भी कर सकते हैं और किसी ऑनलाइन या ऑफ़लाइन फ़ीड-रीडर में अपनी फ़ीड-सूची बनाकर भी. मेरी राय में इससे ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत भी नहीं है.

Thursday, April 19, 2007

अस्सी के काशी

कल भुवनेश ने काशीनाथ सिंह की किताब 'काशी का अस्सी' के बारे में लिखा. कुछ अर्सा पहले हंस में नए लेखन के बारे में काशीनाथ सिंह ने एक लेख लिखा था. उसके कुछ अंश नीचे हैं.

मेरा अनुभव बताता है कि कहानी यथार्थ का भाषिक अनुवाद नहीं है। यदि कहानी का यथार्थ वस्तु-जगत का हू-ब-हू यथार्थ हो तो वह कहानी एकरस, उबाऊ और निर्जीव हुआ करती है। कहानी को यदि जीवित और आकर्षक बनाए रखना है तो यथार्थ से मुक्ति हमारी रचनात्मक आवश्यकता है। हम अपने पंख फैलाना चाहते हैं, उड़ना चाहते हैं लेकिन हमारे पैरों में पत्थर की तरह यथार्थ बंधा है। कभी-कभी हम अपने हाथ-पांव फेंकने को ही उड़ना समझ बैठते हैं। लेकिन यह हम समझते हैं, पाठक नहीं। लिहाजा, हम यह मानकर चलें कि यथार्थ कहानी नहीं होता, कहानी में `यथार्थ' होता है। यथार्थ में छेड़छाड़ के बिना गद्य तो संभव है, गल्प नहीं।

गल्प के रुचिकर होने को वे उसकी पहली आवश्यकता मानते हैं. ख़ासकर आप अगर केवल दूसरे लेखकों के लिए नहीं बल्कि पाठकों के लिए लिखते हों. कहते हैं.
...यदि हम लेखक हैं और साहित्य में ही जीने-मरने के लिए अभिशप्त हैं तो बात दूसरी है लेकिन यदि हम पाठक हैं तो आपकी या किसी की कहानी को पढ़ना हमारी मज़बूरी नहीं है।

और जो पंक्तियाँ मुझे सबसे प्रभावी लगीं
जब भी विचारों की लड़ाई रचना के माध्यम से सचेत होकर लड़ी जाती है तो लड़ाई का चाहे जो होता हो, रचनात्मकता का क्षरण ही होता है।

Wednesday, April 11, 2007

अपनी भाषा में मैं स्मार्ट हूँ

प्रवासियों के सबसे बड़े दर्दों में भाषा का दर्द होता है. पर भारतीय आप्रवासियों द्बारा ये बात उतनी मुखरता से नहीं उठती नज़र आती, कम से कम सामूहिक मंचों पर. कारण हमारी ख़ुशफ़हमी हो या हीनताबोध या फिर देश से साथ ढोकर लाया हुआ अंग्रेज़ी के ऊँचे स्टेटस का ठप्पा, पर खुले तौर पर बहुत कम आधुनिक भारतीय आप्रवासी मानते हैं कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी नहीं.

ड्रैगन टोडोरोविक जोकि एक सर्बियाई पत्रकार हैं 1995 में युगोस्लाविया से जाकर कनाडा बस गये थे. उन्होंने हाल में एक रेडियो शो (In My Language I am Smart - The Immigrant Song) में अपने भाषा अनुभव का ज़िक्र किया. इसकी ऑडियो क्लिप उनकी साइट पर रखी है. सुनने लायक है. बड़ी सटीकता से उन्होंने इस नब्ज़ पर हाथ रखा है. अपनी साइट पर इससे जुड़े एक नोट में वे लिखते हैं (मूल अंग्रेज़ी में ही उद्धृत कर रहा हूँ, अगर किसी को अनुवाद चाहिए तो बताएँ),

I realized quickly that I had a problem. It was not so much with my vocabulary, or my spelling­—on the contrary, that part of my education was very good—but with the precise meaning and finesse of expression.
[...]
Language is acquired with its sound, and the sounds I had picked from records and movies were harsh, aggressive, and presented me in a very different light from who I was and am. Suddenly I realized that somewhere in the process of acquiring the tone of modern English I had lost my identity. It was painful to realize that in my language I was smart, but I sounded stupid in English. Example: while walking with my Canadian friend one day by a church, he started talking about the architecture of that particular building, and while I wanted to say a few things about how I liked the Gothic details on the arch at the entrance, and how I admired the intelligent choice of stones, all I could squeeze out was, “Yeah, it’s cool”.

Acquired meaning is superficial. Sound puts word into context, but the deeper shades of expression are not learned. I responded the way that Clint Eastwood, or some other action hero, would in one of their roles. Back in Serbian language I was connoisseur of arts; in my newly acquired language I was a cop.
[...]
The process of learning a new language is not rounded and simple: at first, it is not the language as a whole that is acquired, but a series of foreign words is superimposed onto mother's tongue. Unavoidably, one has to go through a mutation that is both painful and funny. This piece is an exploration of the immigrant's experience.

वे पूछते हैं,
Where do I belong after going through this experience?

भारतीयों की सोचें तो ये सवाल केवल आप्रवासियों का नहीं है. लगभग सभी अंग्रेज़ी-शिक्षित भारतीय अंग्रेज़ी में बोलकर अपनी बात भली-भाँति और सटीकता से समझा पाने के मामले में अक्षम हैं. और अगर बात किसी गम्भीर विषय पर हो तो पूछिये मत. आप्रवासियों की तो ख़ैर मज़बूरी है. देशवासियों के पास क्या जवाब है?

[लैंग्वेजहैट के जरिये]

Monday, April 09, 2007

क्या सौन्दर्यबोध परिस्थिति से प्रभावित होता है?

धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटाकर देखो
- निदा फ़ाज़ली
वाशिंगटन पोस्ट ने जानना चाहा,
सुंदरता क्या है? ऐसा कुछ जिसे मापा जा सके (बकौल गॉट्फ़्राइड लेबनीज़), या केवल एक राय (बकौल डेविड ह्यूम), या फिर जैसा इमैन्युएल कांट ने कहा था कि थोड़ी थोड़ी दोनों, पर उसपर दर्शक की तात्कालिक मानसिक अवस्था का भी प्रभाव होता है?
इस सवाल का बेहतर जवाब जानने के लिए पोस्ट ने एक मज़ेदार प्रयोग किया.

वाशिंगटन के व्यस्ततम मेट्रो स्टेशनों में से एक है ल'फ़ाँत प्लाज़ा. यहाँ अक्सर सुबह के व्यस्त घंटों के दौरान स्थानीय संगीतवादक वायलिन, गिटार या पियानो बजाते सुनाई दे जाते हैं. गुज़रने वाले अपनी इच्छानुसार डॉलर या चिल्लर इनकी खुली पेटी में छोड़ जाते हैं.

वाशिंगटन पोस्ट ने वहाँ बिठाया (बल्कि खड़ा किया) जोशुआ बेल को. जोशुआ दुनिया भर में ख्यातिप्राप्त वायलिन वादकों में से हैं. इस प्रयोग से तीन दिन पहले ही उन्होंने बोस्टन के सिम्फ़नी हॉल में वायलिनवादन किया था और वहाँ ठीक-ठाक सीटें भी 100 डॉलर में बिकी थीं. पोस्ट ने उनसे स्टेशन के बाहर वायलिन बजाने का आग्रह किया. ठीक उसी तरह जैसे आम स्थानीय कलाकार खड़े होकर बजाते हैं - अकेले, बिना किसी ताम-झाम के, पैसों के लिए पेटी खुली रखकर.

देखना यह था कि क्या एक विश्व-स्तरीय कलाकार, अद्भुत संगीत, और एक उत्तम वाद्य-यन्त्र का मिश्रण एक आम, काम पर जा रहे कम्यूटर के सौन्दर्यबोध को प्रभावित करेगा. क्या एक साधारण माहौल और असुविधाजनक समय में सौंदर्य बरक़रार रहेगा?

क्या हुआ यह विस्तार से जानने के लिए वाशिंगटन पोस्ट का आलेख पढ़िये. घटना की विडियो रिकॉर्डिंग भी वहीं उपलब्ध है.

Thursday, April 05, 2007

देसीपंडित सर्वेक्षण


आपमें से कुछ को शायद पता हो कि देसीपंडित ने हाल ही में एक पाठक सर्वेक्षण करवाया था. पैट्रिक्स ने आज उसके परिणामों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है.

सर्वेक्षण का एक प्रश्न जो हिंदी से संबन्धित था, उसमें पूछा गया था कि आप कितनी बार देसीपंडित का हिंदी अनुभाग देखते हैं? इसके जवाब में 73% लोगों का कहना था 'कभी नहीं'. ज़ाहिर सी बात है. आख़िर मुख्यतः अंग्रेज़ी की साइट है. पहले पन्ने पर सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ब्लॉग ही आते हैं. अंग्रेज़ी में कुल ब्लॉगों की संख्या भी ज़्यादा है, देसीपंडित पर ब्लॉग कवर करने वालों की भी, और वहाँ चर्चित ब्लॉगों की भी. फिर उसमें बाकी भाषाओं के पाठक मिला लें तो 73% कुछ निराशाजनक नहीं लगता.

उल्टे मुझे ये जानकर आश्चर्य-मिश्रित ख़ुशी हुई कि देसीपंडित को पढ़ने वालों में से 27% ऐसे हैं जिन्होने कभी न कभी हिंदी अनुभाग देखा है. इनमें से 9% इसे कभी-कभी देख लेते हैं और 3% अक्सर पढ़ते हैं.

तो चलिए एक तुरत-फ़ुरत का उपसर्वेक्षण करते हैं - आप उन 3%(अक्सर पढ़नेवालों) में हैं, या 73% (कभी नहीं देखने वालों) में या कहीं बीच में?

Sunday, April 01, 2007

अप्रैल फूल

अप्रैल फूल यानी चेरी ब्लॉसम या सकूरा - जो साल में केवल हफ़्ते भर खिलते हैं.