[नारद विवाद पर बहुत बातें कही जा चुकी हैं. पर वक्त की कमी की वजह से इतनी अलग-अलग जगहों पर हो रही बहस को भली तरह समझ पाना मेरे लिए मुश्किल रहा. वैसे भी मेरा मानना है कि ब्लॉग बहस का प्लैटफ़ार्म नहीं है. इसका तकनीकी डिज़ाइन व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के लिए मुफ़ीद है, सामूहिक बहस के लिए नहीं. उसके लिए न्यूजग्रूप और फ़ोरम हैं. इसलिए विवाद के विषय में सीधे बहस में यहाँ नहीं पड़ना चाहता. पर इसी संदर्भ में एक बात कहने की इच्छा हुई, सो हाज़िर है.]
2003 में मशहूर अमेरिकी गायिका-अभिनेत्री बारबरा स्ट्राइसैंड ने एक फ़ोटोग्राफ़र केनेथ ऐडलमैन पर 5 करोड़ डॉलर का मुक़दमा किया था. गोपनीयता का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ऐडलमैन अपनी वेबसाइट पर से बारबरा के कैलिफ़ोर्निया तट स्थित घर की हवाई फ़ोटो हटा लें. पर्यावरण फ़ोटोग्राफ़र ऐडलमैन ने यह फ़ोटो तटीय क्षरण को रिकॉर्ड करने के एक अभियान के दौरान ली थी. स्ट्राइसैंड के घर की वह फ़ोटो जिसपर तब तक किसी ने ध्यान भी नहीं दिया था, इसके बाद पूरे वेब भर पर फैल गई थी. यानि जिस गोपनीयता के लिए उन्होंने यह किया, सबसे ज़्यादा नुकसान उसी का हुआ.
इसी प्रभाव को 2005 में माइक मैसनिक ने स्ट्राइसैंड प्रभाव का नाम दिया. परिभाषित करें तो एक ऐसा इंटरनेट प्रभाव जिसमें किसी सूचना को हटाने या सेंसर करने की कोशिश बिल्कुल उल्टा असर करती है. परिणामस्वरूप वह सूचना बहुत थोड़े समय में व्यापक रूप से प्रचारित हो जाती है.
इस प्रभाव की कुछ घरेलू मिसालें देखें.
1) सितम्बर 2003 में भारत सरकार के "सूचना-तकनीक विशेषज्ञों" ने यह निश्चित किया कि किन्हुन नाम का एक याहू ग्रूप देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त है और उसे प्रतिबंधित किया जाए. आदेश जारी हुए. इनसे भी बड़े 'एक्सपर्ट' निकले हमारे इंटरनेट सेवा प्रदाता यानि आइएसपी, जिन्होंने बजाय उस एक याहू ग्रूप को बैन करने के पूरे याहूग्रूप्स डोमेन को ही बैन कर दिया. नतीजा, जिस समूह में मुश्किल से 20 सदस्य थे और जिसकी पहुँच मुश्किल से सैंकड़ों लोगों तक भी नहीं थी, उसे पूरी दुनिया जान गई. लाखों लोग बेवजह परेशान हुए वो अलग.
2) 2006 में भारत सरकार ने फिर एक बैन का कारनामा अंजाम दिया. इस बार निशाने पर थे hinduunity.org जैसी कुछ साइटें और कुछ ब्लॉग. भारतीय इंटरनेट प्रदाताओं के तकनीकी ज्ञान में इतने सालों में कोई विशेष वृद्धि नहीं दिखी और ज़्यादातर ने फिर संबंधित ब्लॉगों की बजाय पूरे के पूरे डोमेनों (blogspot.com और typepad.com) को ही निषिद्ध कर दिया. बहरहाल, नतीजा फिर वही रहा. जिन ब्लॉगों को मुश्किल से रोज़ाना 50 हिट भी नसीब नहीं होते थे, उन्हें हज़ारों दर्शक देखने, जानने, और पढ़ने लगे. भारत से भी लोग प्रॉक्सी वेबसाइटों के इस्तेमाल से बैन के बावजूद इन्हें पढ़ते रहे. प्रतिबंधित ब्लॉगों व साइटों की विचारधारा ज़्यादा लोगों में फैली.
(सीख फिर भी नहीं मिली है शायद. अभी पिछले दिनों ऐसे ही प्रयास महाराष्ट्र में ऑर्कुट के कुछ समूहों को बैन करने के लिए चलते दिखाई दिए.)
मुद्दा यहाँ हक़ का नहीं है, हक़ के प्रभावी इस्तेमाल का है. कई मामलों में इन ब्लॉगों, वेबसाइटों, या फ़ोटोग्राफ़ों को हटा सकने का कानूनी अधिकार हटाने वालों के पास था. पर उस अधिकार का प्रयोग कर क्या उन्हें सचमुच वह हासिल हुआ जो वे चाहते थे?
लगभग सभी साइटें सामग्री हटाने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखती हैं. पर क्या आपको याद आता है कि कभी किसी ख्यातिप्राप्त साइट डायरेक्टरी, खोज इंजन, या ब्लॉग संकलक ने सिर्फ़ भाषा या विचारों के आधार पर किसी साइट को अपने इंडेक्स या सूची से हटाया हो (चीन की बात मत कीजिएगा)? क्यों ऐसा है कि करोड़ों अंग्रेज़ी ब्लॉगों में ऐसी मिसालें न के बराबर हैं? क्योंकि हटाने का आग्रह करने वाले इस प्रभाव को समझने लगे हैं. और हटाने वाली सेवाएँ जानती हैं कि ऐसा करके वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर एक बहुत बड़े वर्ग की नाराज़गी मोल लेंगी (जैसा कि अभी कुछ हफ़्तों पहले डिग ने देखा). आख़िर अगर किसी साइट या ब्लॉग को बैन करने का अधिकार उन सेवाओं के पास सुरक्षित है तो उन्हें लतियाने का अधिकार उनके दर्शकों के पास भी तो है.
Monday, June 18, 2007
स्ट्राइसैंड प्रभाव
Friday, June 15, 2007
1 किलो माने?
क्या आपने कभी सोचा है कि एक किलोग्राम दरसल कितना भारी होता है? कौन बताता है कि इसका ठीक-ठीक वजन क्या है? क्या आपके परचूनी वाले या सब्जी वाले के बाट ठीक एक किलो हैं? हैं या नहीं ये कैसे पता होता है? नहीं सोचा? तो सोचिये. और सोचने की फ़ुर्सत न हो तो आगे पढ़िये.
किलोग्राम एक ऐसा माप है जो किसी भौतिक स्थिरांक पर आधारित नहीं है. बल्कि उसका मानदंड पैरिस के एक वॉल्ट में रखा एक सिलिंडर है. किलोग्राम की परिभाषा के लिए क़रीब 100 साल पहले प्लैटिनम और इरीडियम के मिश्रण से एक सिलिंडर बनाया गया और घोषित किया गया कि "एक किलोग्राम का ठीक मान इस विशिष्ट सिलिंडर का द्रव्यमान है". यानि,
1 मीटर = प्रकाश द्वारा संपूर्ण निर्वात में 1/29,97,92,458 सेकंड में तय की गई दूरी
1 सेकंड = एक निश्चित भौतिक प्रतिक्रिया के 9,19,26,31,770 अन्तराल
पर,
1 किलोग्राम = पैरिस के एक वॉल्ट में रखा सिलिंडर
समझ रहे हैं मुश्किल? क्या हो अगर वो सिलिंडर किसी वजह से खत्म हो जाए? हमारे पास सिर्फ़ उसके अलग-अलग दुनिया भर में फैले प्रतिमान बाक़ी रहेंगे, जो कि समय या वातावरण की मार या कॉपी की ग़लतियों की वजह से अलग-अलग हो सकते हैं. फिर किसका किलो सही और किसका ग़लत माना जाएगा?
ऑस्ट्रेलिया के एक दल ने इस समस्या का हल किया है एक नया प्रोटोटाइप सोचकर जो एक भौतिक स्थिरांक पर आधारित होगा. वे किलोग्राम का निर्धारण इस बात से करेंगे कि एक किलोग्राम में कितने सिलिकॉन अणु होते हैं. इसके बाद किलोग्राम भी मीटर और सेकंड जैसे अन्य मापकों की तरह भौतिक स्थिरांकों के आधार पर परिभाषित हो जाएगा.
[श्लैशडॉट के जरिये]
Monday, June 11, 2007
बिल्लियाँ सिर्फ़ हिंदी समझती हैं
नहीं मानते? अमेरिका के डेव पेटन से पूछिए. वरना ख़ुद ही किसी बिल्ली से बात करके देख लीजिए. अगर बात हो तो मेरा नमस्ते कहिएगा.
Posted by v9y at 10:00 am 5 comments
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Wednesday, June 06, 2007
हिंदी की विदाई की तैयारी में हिंदी अख़बार
प्रभु जोशी अपने एक विचारोत्तेजक लेख में हिंदी की योजनाबद्ध हत्या के प्रयास के बारे में बताते हैं. कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ, पर पूरा लेख पढ़ने (बल्कि सहेज के रखने) लायक है.
इस योजना का खुलासा करते हुए वे लिखते हैं,
जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अख़बार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अख़बार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेज़ी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की तो मैंने अपने पर लगने वाले अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा.और फिर इसके तरीकों का जिक़्र करते हैं,
[...]
अख़बार ने इस अभियान को एक निर्लज्ज अनसुनी के साथ जारी रखा और पिछले चार सालों से वे अपने संकल्प में जुटे हुए हैं.
अंग्रेज़ों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - 'अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे बहुत अच्छी तरह से यह बात आपके गले उतार सकते हैं कि आपके हित में आपका स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है. [...]और आख़िर में मेरी एक दुखती रग को छेड़ते हुए लिखते हैं,
वे हत्या की अचूक युक्तियाँ भी बताते हैं, जिससे भाषा का बिना किसी हल्ला-गुल्ला किये 'बाआसानी संहार' किया जा सकता है.
वे कहते हैं हिन्दी का हमेशा-हमेशा के लिए ख़ात्मा करने के लिए आप अपनाइये - 'प्रॉसेस ऑफ़ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म'. अर्थात, बाहर पता ही न चले की भाषा को 'सायास' बदला जा रहा है. बल्कि 'बोलने वालों' को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और मध्य प्रदेश के कुछ अख़बारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है.
[...]
इस रणनीति के तहत बनते भाषा रूप का उदाहरण एक स्थानीय अख़बार से उठा कर दे रहा हूँ.
"मार्निंग अवर्स के ट्रैफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट ऐडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रैफिक रूल्स अपने ढंग से इम्प्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफर्ट्स किये हैं, वो रोड को प्रोन टु एक्सिडेंट बना रहे हैं. क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं. इस प्रॉब्लम का इम्मिडियेट सोल्यूशन मस्ट है."
इस तरह की भाषा को लगातार पाँच-दस वर्ष तक प्रिंट माध्यम में पढ़ते रहने के बाद अख़बार के पाठक की यह स्थिति होगी कि उसे कहा जाय कि वह हिंदी में बोले तो वह गूँगा हो जायेगा. उनकी इस युक्ति को वे कहते हैं 'इल्यूज़न ऑफ़ स्मूथ ट्रांज़िशन'. अर्थात हिन्दी की जगह अंग्रेज़ी को निर्विघ्न ढंग से स्थापित करने का सफल छद्म.
क्या हमारे हिंग्लिशियाते अख़बार इस पर कभी सोचते हैं कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पाल गुडमैन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी हैं कि हमारे रक्त में रची-बसी भाषा को उसके मास-मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं. [...] और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूँगों की नहीं अंधों की शैली में आँख मींचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है, उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिंता एक तरह का देसीवाद है जो भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हज़म नहीं कर पा रहा है.शुक्रिया प्रभु जोशी.
[संजय के जरिये]