Tuesday, October 30, 2007

अंग्रेज़ी के माथे एक मौत

On October 22, a 22-year-old second-year B.Tech student of the IEC Engineering College Noida, hanged himself. The suicide note Brajesh Kumar left behind in the room he shared with another student in Tughlakpur village said that he was doing this because he could not cope with the courses being taught in English and that he did not want to burden his family with paying another hefty amount towards special English coaching classes.

हालाँकि यह प्रतिक्रिया अतिवादी है और मैं इसे बिल्कुल ठीक नहीं मानता, यह अंग्रेज़ी के मुद्दे की गंभीरता बयान करती है. उच्च शिक्षा का माध्यम मातृभाषा से अलग होना भारत की कई पीढ़ियों के करोड़ों छात्रों का सिरदर्द रहा है.

मृणाल पांडे का समाधान है कि अंग्रेज़ी को सरकारी स्कूलों की प्राथमिक क्लासों में अनिवार्य विषय बना दिया जाए. मेरा मानना है कि हालाँकि वह भी होना चाहिए (क्योंकि अंग्रेज़ी के साधारण ज्ञान की वर्तमान उपयोगिता से कोई इंकार नहीं कर सकता) पर ज़्यादा ज़रूरी यह है कि उच्च शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा हो. आधुनिक तकनीकी विषयों पर अच्छी गुणवत्ता की पठन पाठन सामग्री स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध हो. स्कूलों में पढ़ाई गई भाषा कितना भी कर ले एक माध्यम के तौर पर उस भाषा का स्थान नहीं ले सकती जो प्राकृतिक तौर पर बोलकर सीखी जाती है. और संवाद के तौर पर तो कतई नहीं.

आश्चर्य इस बात का है कि ऐसा अभी तक हुआ क्यों नहीं. क्या हिंदी का बाज़ार अभी भी इतना बड़ा नहीं कि वह हिंदी में शिक्षा की माँग कर सके? या यह उस छोटे, पर ताकतवर, अंग्रेज़ी समाज के प्रतिरोध की वजह से है ताकि वह शेष भारत की प्रतिद्वंदिता से बच सके और अपना प्रभुत्व बनाए रख सके? या बस इस पर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया? क्या बिना कुछ और ब्रजेश कुमारों की आत्महत्याओं के इस बारे में कोई नहीं सोचेगा? आखिर कब तक ज्ञान 80% लोगों के लिए मुश्किल बना रहेगा?

आप क्या सोचते हैं?

Friday, October 19, 2007

इस ब्लॉग के पाँच साल

कोई यूँ ही सा दिन रहा होगा
ख़ब्त थी शायद या ज़रूरत रही हो
बहरहाल मुश्किल से दो मिनट लगे थे
इस ब्लॉग के जन्म में
विचार से निर्माण का सफ़र
तभी छोटा हो चुका था

फिर एक-एक दो-दो कर
इकट्ठा होने लगी पोस्टें
और चलने लगे इस ब्लॉग के दिन
महीनों की गठरी में सिमटे
कभी मिनट-मिनट में बँटे
कभी हफ़्तों-हफ़्तों कूदते
कभी किसी बोर फ़िल्म-से लंबे
कभी शाम को शुरू होते
और यूँ चलते-चलते
आज 60 गठरियाँ बँधी हैं

दूर की सोच के इस दौर में
जब नज़रें आगे, बस आगे देखने की अभ्यस्त हो गई हैं
कभी-कभी (पर बस कभी-कभी)
पीछे मुड़ कर देखना
अच्छा लगता है

चमकती स्क्रीन पर लटके
इन गहरे स्याह अक्षरों में
स्याही की ख़ुशबू भले न हो
नॉस्टॅल्जिया ज्यों का त्यों मौजूद है
डायरी के पन्ने पलटने का मज़ा
माउस की क्लिकों से बेशक नदारद है
पर तख़लीक़ की तकलीफ़
वैसी की वैसी है
ये अक्षर भी उतने ही अ-क्षर हैं
बल्कि शायद कुछ ज़्यादा ही
क्योंकि काग़ज़ी हर्फ़ों की तरह
इनके धुँधले पड़ने का कोई ख़तरा नहीं

लीजिए कहाँ उलझ गया
आया तो आपको धन्यवाद कहने था
आपको शायद पता न हो
(मुझे भी देर से महसूस हुआ)
पर इस यात्रा की लगातारी में
आपका योगदान सबसे बड़ा है
इसलिए, शुक्रिया!

Thursday, October 11, 2007

उदाहरण.परीक्षा

ताज़ा अपडेट (15 अक्टूबर) - http://उदाहरण.परीक्षा अब परीक्षण के लिए चालू है. अगर यह कड़ी काम नहीं करती तो यहाँ क्लिक करें (और बेहतर होगा कि अपना ब्राउजर बदल लें या नवीनीकृत कर लें). परीक्षण का खुलासा करता हुआ एक विडियो भी है.

ख़बर है कि नए बहुलिपि डोमेन नामों के परीक्षण के लिए हिंदी डोमेन होगा - उदाहरण.परीक्षा. इन परीक्षण डोमेनों को 9 तारीख को रूट सर्वरों पर जोड़ दिया गया. परीक्षण विकी की कड़ियाँ आइकैन की वेबसाइट पर 15 अक्टूबर को प्रकाशित की जाएँगी.



लगे हाथों एक और ख़बर - आइकैन की 31वीं अंतरराष्ट्रीय बैठक अगले साल 10-15 फरवरी को नई दिल्ली में होगी.

Friday, October 05, 2007

हिंदी और तमिळ में डोमेन नाम

परसों विंट के मुँह से सुना और आज ख़बर अख़बार में थी. अनुनाद ने भी आज इसका ज़िक्र किया है.

अगले साल के अंत तक पूरे के पूरे डोमेन नाम (टीएलडी यानि शीर्ष-स्तर डोमेन नाम समेत) लैटिन के अलावा 11 अन्य लिपियों में प्रयोग किए जा सकेंगे. भारतीय लिपियों में हिंदी (देवनागरी) और तमिळ को इस शुरुआती दौर के लिए चुना गया है.

परीक्षण इसी 15 अक्टूबर से शुरू हो जाएगा, जब आइकैन व्यक्तियों और व्यापारों को इसे जाँचने के तरीके मुहैया कराएगा. अभी हालाँकि इन नामों के पंजीकरण तो शुरू नहीं होंगे, पर आपसी संवादों, ई-मेल, वेब कड़ियों में इन्हें इस्तेमाल किया जा सकेगा. आइकैन के अनुसार एक तरह से पूरी दुनिया को इस प्रणाली को तोड़ने के लिए आमंत्रित किया जाएगा. आप भी तैयार रहिएगा :).

नागरी के मामले में कुछ बातें हैं जिन्हें परखने के लिए मैं उत्सुक रहूँगा. मसलन भिन्न कूटांको वाले पर एक से दिखने वाले हिंदी शब्दों को यह सिस्टम कैसे सँभालेगा. यह जानना भी दिलचस्प होगा कि हिंदी में .com या .org आदि डोमेनों को कैसे लिखा जाएगा.

क़दम स्वागत योग्य है, भले ही ज़रा देर से उठा है. उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब सिर्फ़ नागरी जानने वाला एक व्यक्ति "गूगल.कं.भारत", "वेब.बीबीसीहिंदी.कॉम" या "भारत.सरकार" जैसा कुछ टाइप कर भी इन गंतव्यों पर पहुँच पाएगा.

Thursday, October 04, 2007

इंटरनेट के जन्मदाताओं के साथ एक शाम

इंटरनेट के आविष्कार की कहानी बॉब कॉन और विंट सर्फ़ से सुनने को मिले, इसे मैं बतौर इंटरनेटजीवी एक दुर्लभ सुख कहूँगा. ये सुख कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसा शायद कोई टेलीकॉम इंजीनियर खुद ग्राहम बेल से टेलीफ़ोन की निर्माणगाथा या कोई संस्कृतज्ञ खुद पाणिनी से संस्कृत व्याकरण की रचना के बारे में सुन कर अनुभव करेगा.

जो न जानते हों उनके लिए बता दूँ कि ये दोनों "इंटरनेट के जनक" माने जाते हैं. दोनों ने मिलकर नेट के मूलभूत प्रॉटोकॉल टीसीपी/आइपी का आविष्कार किया था. उसके बिना आज का जीवन कैसा होता इस सोच में जाना तो काफ़ी समय माँगता है, हाँ इतना तो कम से कम कह ही सकता हूँ कि आप मेरा ये लिखा न पढ़ रहे होते.

कल बॉब और विंट शहर (वाशिंगटन, डीसी) में थे. अमेरिका के नेशनल आर्काइव्स (राष्ट्रीय अभिलेखागार) में आयोजित एक चर्चा में दोनों ने करीब डेढ़ घंटे तक खुलकर बात की. हालाँकि चर्चा का मुख्य विषय "इंटरनेट गवर्नेंस की बहस" था, दोनों इंटरनेट के शुरुआती दौर (सत्तर के दशक) के किस्सों से लेकर नेट के भविष्य पर अपने विचारों समेत कई मुद्दों पर बोले. नेशनल आर्काइव्स के छोटे से मैकगॉवन थियेटर में करीब 200 लोग थे जिनमें अमेरिकी सरकार के नुमाइंदे और डीसी इंटरनेट सोसाइटी के सदस्य मुख्य थे. कार्यक्रम के मध्यस्थ थे आर्काइव्स फ़ाउंडेशन के चेयरमैन टॉम व्हीलर.

इस सवाल के जवाब में कि क्या हम आज इंटरनेट को कुशलता से (एफ़िसियंटली) प्रयोग कर रहे हैं, विंट का कहना था नहीं. कई ऐसे परिदृष्य हैं जहाँ ऐसा नहीं हो रहा है. मसलन डाउनलोड और अपलोड बैंडविड्थ में अंतर. उनका कहना था कि पहले ये ठीक था क्योंकि शुरुआती दौर में निर्माता/प्रकाशक कम थे और उपभोक्ता ज़्यादा. पर अब ब्लॉगों और यू-ट्यूब के ज़माने में हर कोई निर्माता है. इस अंतर को समझ कर हमें बदलाव करने होंगे.

बॉब का कहना था कि मैं इस प्रश्न को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता. जबकि बैंडविड्थ लगभग असीमित है, कुशलता या एफ़िसियंसी हमारी प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए. हमारी प्राथमिकता फ़ंक्शनॅलिटी होनी चाहिये.

बॉब का जवाब मुझे एक और संदर्भ में दिलचस्प लगा. मेरे ख़याल से उनकी ये बात हिंदी के लिए यूनिकोड मानक के उपयोग (ख़ासकर मोबिल यंत्रों पर) के पक्ष में जाती है. यूनिकोड, एस्की जैसे सरल कूटकरणों के मुकाबले ज़्यादा संसाधन (मुख्यतः बैंडविड्थ) माँगता है, पर हिंदी और अन्य ग़ैर-लैटिन लिपियों के लिए अब सवाल संसाधनों का नहीं, सुविधा का होना चाहिये.

निकट भविष्य के बारे में विंट का कहना था कि आइपी6 को लागू करना पहली प्राथमिकता है क्योंकि 2010 तक आइपी4 के पते ख़त्म हो जाएँगे. इसके अलावा उन्होंने बताया कि 2008 में अन्य लिपियों में डोमेन नाम भी पूरी तरह काम करना शुरू कर देंगे.

बॉब ने डारपा (अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की संस्था, जहाँ इंटरनेट का आविष्कार हुआ) छोड़ने के बाद एक नॉन-प्रॉफ़िट संस्था सीएनआरआइ शुरू की और अब उसके अध्यक्ष व सीईओ हैं. विंट इन दिनों गूगल के उपाध्यक्ष और चीफ़ इंटरनेट इवैंजलिस्ट (प्रचारक) हैं. इसके अलावा 2000 के बाद से वे आइकैन बोर्ड के चेयरमैन भी हैं.

सेलफ़ोन से कुछ तस्वीरें ली थीं. बहुत अच्छी तो नहीं हैं पर पोस्ट करूँगा ये रहीं.