निकॉलस ऑस्लर Foundation for Endangered Languages के चेयरमैन हैं और Empires of the Word: A Language History of the World और Ad Infinitum: A Biography of Latin किताबों के लेखक. फ़ोर्ब्स के भाषा विशेषांक में लिखे अपने एक हालिया लेख में उन्होंने अंग्रेज़ी के भविष्य पर टिप्पणी की है.
उनका मानना है कि अगर लिंग्वा फ़्रैंकाओं (संपर्क भाषाओं) के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि जो 60 करोड़ लोग आज अंग्रेज़ी को दूसरी-भाषा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं और इसे सबसे बड़ी संपर्क भाषा बनाते हैं, वही लंबी अवधि में इसके लिए नुकसानदायक होंगे.
संपर्क भाषा या लिंग्वा फ़्रैंका उन लोगों के बीच संवाद की भाषा होती है जिनकी मातृभाषाएँ अलग हों. पुरानी संपर्क भाषाओं में वे लैटिन, क्वेच्वा, फ़ारसी, और अरमेक को गिनाते हैं और आधुनिक युग में स्पैनिश, फ़्रांसीसी, हिंदी, रुसी, और अंग्रेज़ी को.
उनके अनुसार भाषाओं के 5000 साल के दर्ज इतिहास से ये बात स्पष्ट होती है कि संपर्क भाषाओं का फैलाव किसी सुविधा गणित या जनतांत्रिक चुनाव के जरिये नहीं होता, न ही भाषा की सुंदरता या बहाव की वजह से. इसके पीछे हमेशा एक विशेष प्रयासपूर्ण कारण होता है जिसे भुलाना - और अक्सर माफ़ कर पाना - मुश्किल होता है.
ऐतिहासिक संपर्क भाषाओं की बात करते हुए वे कहते हैं:
There was status or wealth to be gained from knowing these languages, and in their heyday, no one believed they might one day go out of use. After all, they seemed not only useful, but also such exceptional languages. Latin--alone of western languages--had grammatica, an analysis of all its rules; French was regulated by an Academy, which would ensure the quality of its substance. Likewise, English, with its simple sentence-structure and openness to borrowed vocabulary, is often thought well suited to be a global medium
पर उनका कहना है कि ये भाषाएँ विचार संप्रेषण का माध्यम मात्र रहने की बजाय अपने फैलाव का बिल्ला लगाए घूमती हैं; और यही अन्ततः उनके पतन का कारण होता है.
Akkadian spread beyond the Assyrian empire on the strength of its pictograph-based cuneiform writing, but then yielded to Aramaic, a language combining widespread use with an alphabetic script. Sogdian, once spoken by merchants and divines from Samarkand to China, could not survive the decline of the Silk Road trade. And in Europe, Latin in the 9th to 16th centuries and French in the 17th to 20th centuries depended on educated elites. Wide use of those languages declined when power passed into other hands.
आज की वैश्विक संपर्क भाषा के बारे में उनका मानना है कि जैसे जैसे झुकाव राजनैतिक लोकतंत्रीकरण की ओर होगा, अंग्रेज़ी का विश्वव्यापी प्रयोग कम होगा, क्योंकि यह सीधे सीधे एलीट (उच्च/कुलीन/संभ्रांत) वर्ग, जोकि अंग्रेज़ी के मुख्य प्रयोक्ता हैं, के स्टेटस को कम करेगा. कहते हैं,
[...] This has already happened. With independence achieved after the Second World War, Tanzania, Sri Lanka, Malaysia and the Philippines all downgraded their official use of English. In India, too, English is beginning to lose its stranglehold on enterprise and education: In February, a major business newspaper in Hindi was launched, likely the first of many. The massive current expansion in Indian higher education (aimed at increasing participation from 10% to 15%) will also lessen the proportion of citizens who are educated in English as opposed to Hindi or another mother tongue.
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Friday, February 22, 2008
लिंग्वा फ़्रैंका, पर कब तक?
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1 comment:
yadi dost aap love shayari padna chahate hain to yanha click kare thankyu
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