राजदीप सरदेसाई "ट्वेंटी-20 विश्व कप" की भारतीय जीत में हिंदी और भारतीय भाषाओं का बदलता रुतबा देख रहे हैं. उनका कहना है कि महानगरों के बाहर का भारत, अंग्रेज़ी न बोलने वाला भारत अब राष्ट्रीय पटल पर ज़्यादा तेज़ी और मुखरता से उभर रहा है. लेख दिलचस्प है और उस तस्वीर पर ध्यान दिलाता है जिसके बारे में अंग्रेज़ी मीडिया में अक्सर बात नहीं होती. पेश है उनके लेख से संबंधित अंश.
In 1983, those who worked in the non-English media were seen as lesser beings: they got far lower salaries, their rooms were smaller, their stories attracted scant attention. How, after all, could you compare an Oxbridge educated editor with someone from Chaudhary Charan Singh university? Today, quite remarkably, there has been a dramatic change: Hindi TV journalists can demand a price in the marketplace, the energy and robustness of Hindi channels is to be admired (even if it is misdirected at times), and most news networks acknowledge that their Hindi channel viewership is more important than their English audience. A Hindi journalist can no longer be dismissed as an ignorant vernacular; he is now seen as the person with a ear to the ground.हमारा अंग्रेज़ीदाँ समाज, जो अभी भी अधिकतर क्षेत्रों में प्रभुत्व जमाए है, भारतीय भाषाओं के प्रति या तो प्रतिरोधक रवैया रखता है या उदासीन. भारतीय भाषाओं और इसके बोलनेवालों की वह मुखरता जो राजदीप देख रहे हैं इस प्रतिरोध के बावजूद है. बरसों के बाद अपनी भाषा में जीने और अपनी बात रखने के मौके और मंच उन लोगों को बाज़ार और तकनीक ने दिये हैं, शासकों और मालिकों ने नहीं. उनकी सफलता प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष से प्राप्त की गई सफलता है.
A similar change can be seen in the IITs. In 1983 they were populated by English-speaking graduates. Today’s young IITians come from small towns, their English imperfect, but their educational achievements second to none. The rules of admission remain the same.
आज़ादी और प्रगति का एक महत्वपूर्ण मापदंड है स्वावलंबन. भाषा उसकी पहली सीढ़ी है. भाषा का स्वावलंबन देश की प्रगति की शुरुआत होनी चाहिये, उसकी पूर्णता नहीं.