Thursday, October 05, 2006

जर्मनागरी


फ़्रैंकफ़र्त में २००६ का पुस्तक मेला चल रहा है और भारत सम्माननीय अतिथि है। मेले और भारतीय साहित्यिक परिदृष्य पर हिंदी में एक वेबसाइट भी बनाई गई है। पर बात यहीं तक सीमित नहीं है। मुख्य मीडिया भी उत्साहित दिखाई देता है। जर्मन अख़बार डी टागसज़ाइटुंग ने अपने कल (४ अक्टूबर) के अंक का मुखपृष्ठ अपने नाम के नागरी रूप के साथ छापा है। देखिये जर्मन और हिंदी का मेल (पीडीएफ़ प्रारूप)।

(छवि सौजन्य: साँभर माफ़िया)

Monday, October 02, 2006

सूरत बदलनी चाहिए

पिछले हफ़्ते जब मैंने मीन-मेख अभियान शुरू करने का ज़िक्र किया था तो मुझे विशेष प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी. पर प्रतिक्रियाएँ मिलीं और अच्छी मिलीं. लोग सकारात्मक दिखाई दिए और कइयों ने अपने चिट्ठे पर आने का न्यौता भी दिया. मैंने भी कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियों में इस बारे में लिखना शुरू किया. इस बात का ध्यान रखा कि जिन्होंने रुचि दिखाई है, या न्यौता दिया है, वहीं जाऊँ. पर लगता है कि कुछ लोगों को बुरा लगा. जैसे समीर लाल जी को, भले ही उन्होंने यह बताने के लिए हास्य का सहारा लिया है (जोकि उनका बड़प्पन है).

पर मुद्दे पर आऊँ उससे पहले एक दो बातें और कहना चाहूँगा.

मैं निंदक नहीं हूँ. निंदक और आलोचक में भी फ़र्क होता है. और मैं तो आलोचक भी नहीं. मुझे तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रूफ़रीडर कह सकते हैं. या थोड़ा अधिक सम्माननीय होना चाहें तो उत्प्रेरक (कुछ सीखने का) कह लें. पर निंदक? न.

मैं "व्याकरणाचार्य" भी नहीं हूँ :). अनूप जी की तो मौज लेने की आदत है. पर जो उनकी इस आदत से नावाक़िफ़ हों उनके लिए स्पष्ट कर देना ज़रूरी है. मैं भी आपमें से अधिकतर की ही तरह एक सामान्य हिंदी भाषी हूँ. न तो मैं कोई भाषाविद हूँ न भाषाविज्ञ. भाषा में रुचि रखने वाला या शिक्षार्थी हूँ. यह हिंदी का दुर्भाग्य होगा अगर किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इस बिना पर कि वह ठीक हिंदी लिखता है, व्याकरणाचार्य या भाषाविद समझा जाए. ठीक हिंदी लिखना हर हिंदी लेखक की बुनियाद होनी चाहिए, उसकी विशेषता नहीं.

ख़ैर, अब मुद्दे पर आता हूँ. सार्वजनिक रूप से ग़लतियाँ बताना कुछ को खला है (हाँ, सार्वजनिक रूप से ग़लतियाँ *करने* में वे कोई बुराई नहीं मानते :)). खुली टिप्पणियों में सुधारों का ज़िक्र करने के पीछे मंशा यह थी कि चिट्ठा लिखनेवाले के अलावा उसे पढ़नेवाले भी फ़ायदा उठा सकेंगे. पर न तो मैं चाहता हूँ कि किसी को बुरा लगे, न ही किसी की कमियाँ दिखाना मेरा ध्येय है. दुष्यंत को उद्धृत करूँ तो:

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

पर घबराइये मत (या अगर आप दूसरी तरफ़ हैं तो ख़ुश मत होइये :)), इतनी जल्दी मैं हार नहीं मान रहा. बस ये कुछ बदलाव तय किये हैं मैंने इस अभियान में.

॰ अब मैं सार्वजनिक रूप से उन टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं करूँगा. अधिकतर चिट्ठों में 'टिप्पणी मध्यस्थन' सुविधा है. ऐसे चिट्ठेवालों से अनुरोध है कि मेरी टिप्पणियों में सुझाए सुधार देखें, हो सके तो प्रविष्टि की ग़लतियाँ सुधार लें और फिर मेरी पोस्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दें. यानी उसे प्रकाशित मत करें.
॰ जिन चिट्ठों पर ऐसी सुविधा नहीं है वहाँ मैं टिप्पणियाँ नहीं छोड़ूँगा.
॰ कोशिश करूँगा कि दिवाली तक यह सफ़ाई अभियान खींच जाऊँ.
॰ कोशिश करूँगा कि दिन में कम से कम एक जगह तो झाड़ू लगा ही दूँ.
॰ कोशिश रहेगी कि जिसने रुचि दिखाई हो, पहले (या शायद सिर्फ़) वहीं जाऊँ.

आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. इससे मुझे यह भी पता चलेगा कि आपकी इस सुधार में रुचि है और आपको कोई आपत्ति नहीं है. बस, महज शिष्टाचारवश ऐसा मत करें. अब ये कहाँ का शिष्टाचार कि किसी को अपने घर के जाले निकालने बुलाओ और जब वह निकाले तो कहो कि भई सचमुच थोड़े ही बुलाया था :).