कुछ अर्सा हुआ, आलोक ने एक अभियान शुरू किया था - चिट्ठों पर वर्तनी और व्याकरण की भूलों की ओर इशारा करने का. मेरे विचार से बड़ा ही उम्दा अभियान था, और बहुत ज़रूरी. अगर हिंदी चिट्ठों की वर्तमान स्थिति का जायज़ा लिया जाए तो यह सबसे ज़्यादा चिंता का विषय है. अपनी बात कहूँ तो अगर अँगरेज़ी के किसी चिट्ठे में मुझे इस क़दर वर्तनी अशुद्धियाँ मिलें तो मैं एक पैरे से आगे न बढ़ूँ और उस चिट्ठे पर लौटूँ तक नहीं. अक्सर कई हिंदी चिट्ठों के साथ भी ऐसा करने की इच्छा होती है, और कुछ के साथ किया भी है, पर कुछ मजबूरी में और कुछ लत की वजह से चलता रहता है.
मेरी बात कइयों को बुरी लग सकती है. अगर लगे तो माफ़ी. और चाहें तो मुझे भला-बुरा भी कह लें. पर इस बारे में ज़रा सोचें. ग़लतियों से मेरा उतना झगड़ा नहीं है, जितना न सीखने की प्रवृत्ति से है, उनके दोहराव से है. भाषा केवल ख़ुद के लिए नहीं होती. जब आप दूसरों के लिए लिखते हैं तो कम से कम इसका ख़याल रखें कि लोग आपकी बात ठीक-ठीक बिना अटके, बिना झुँझलाये समझ सकें. अब यह मत कहें कि मैं तो बस अपने लिए लिखता/ती हूँ. अगर आपका ब्लॉग सार्वजनिक है, आप दूसरों की टिप्पणियाँ लेते हैं और उनका जवाब देते हैं, तो आप दूसरों से बात कर रहे हैं. अगर हर कोई हिज्जों के अपने अपने संस्करणों का प्रयोग करने लगे तो संवाद मुश्किल हो जाएगा. साहित्य और कविता के चिट्ठों में तो ऐसी ग़लतियाँ अक्षम्य हैं. इन अशुद्धियों को लेखन-शैली से मत जोड़ें. शैली व्यक्तिगत होती है, व्याकरण और वर्तनियाँ नहीं.
अक्सर कई लोगों का तर्क होता है कि आप सामग्री पढ़िये न, अशुद्धियाँ को क्यों देखते हैं; जो लिखा है वह महत्वपूर्ण है. बेशक है. वह ज़्यादा महत्वपूर्ण है. पर खाना भले कितना ही स्वादिष्ट बना हो, अगर उसमें एक भी कंकर निकल आए तो पूरा मज़ा बिगड़ जाता है. फिर यह नहीं देखा जाता कि भई स्वाद तो अच्छा है. और जब कंकरों की लाइन लगी हो फिर तो खाना छोड़ने के अलावा कोई उपाय नहीं. दुनिया भर के संपादक और लेखक अगर अपनी प्रकाशित रचनाओं में इन चीज़ों का ध्यान रखते हैं, और इस पर अच्छा खासा समय देते हैं, तो इसलिए नहीं कि वे बेवकूफ़ हैं.
अनुरोध है कि थोड़ा ध्यान दीजिए. ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है. हममें से अधिकतर को अँगरेज़ी में पढ़ने-लिखने की आदत रही है. पर अब आप हिंदी में लिख रहे हैं तो हिंदी के प्रति कुछ सम्मान भी होना चाहिये. चलिए हिंदी के प्रति सम्मान न भी हो, अपने पाठक के प्रति तो होना ही चाहिए. लेखक अगर अपनी भाषा ही अच्छी तरह न जाने तो उसे कैसे पाठक मिलेंगे. हिंदी सीखने पर थोड़ा वक़्त देना नाजायज़ नहीं है. इसका फ़ायदा आख़िर आप ही को होना है. ग़लतियाँ जानने की कोशिश करना, लोगों से ग़लतियाँ पूछना, कोई बताये तो नाराज़ न होना, उन्हें सुधारना (ग़लतियों को, बताने वालों को नहीं :)), शब्दकोषों की मदद लेना, ये इस दिशा में कुछ शुरुआती क़दम हो सकते हैं.
आलोक तो फिलहाल व्यस्त लगते हैं. सोच रहा हूँ उनके काम को मैं जारी रखूँ. तो जहाँ तक हो सकेगा कोशिश करूँगा कि चिट्ठों को पढ़ते समय अगर मुझे कुछ ग़लत लगे तो टिप्पणी में लिख दूँ. अगर किसी को अपने चिट्ठे पर मेरा ऐसा करना बुरा लगे तो ज़रूर बताए. मैं आगे से वहाँ ऐसा नहीं करूँगा. साथ ही मेरी ग़लतियों पर भी ध्यान दिलाएँ, आभारी हूँगा.
Thursday, September 28, 2006
गलत गलत अभ्यास से...
Posted by v9y at 11:05 am 22 comments
Thursday, September 14, 2006
हिंदी का एक दिन
सरकार का कहना है कि आज हिंदी दिवस है.
प्राकृतिक भाषाएँ एक दिन में जन्म नहीं लेतीं, इसलिये उनके जन्म-दिवस नहीं होते. यही कारण है कि आपने कभी फ़्रांसीसी दिवस या अँगरेज़ी दिवस नहीं सुने होंगे. ऐसे देशों में भी जहाँ माँ-बाप-भाई-बहन-पत्नी-चाचा-ताउओं के लिए भी दिन तय होते हैं, किसी भाषा का कोई ख़ास सरकारी या ग़ैरसरकारी दिन नहीं होता. फिर हमें ये क्या सूझी?
देखा जाए तो ग़लती तकनीकी है. १४ सितम्बर को हिंदी दिवस मनाने का कारण यह नहीं कि इस दिन हिंदी का जन्म हुआ था, या उस दिन इसका नाम पहली बार हिंदी पड़ा. बल्कि यह है कि १९४९ की १४ सितम्बर को हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला था. तो क़ायदे से इसे राजभाषा दिवस कहा जाना चाहिए. भाषा दिवस कह लीजिए. पर हिंदी दिवस? ग़लत समझ में आता है.
अब ये बात बिल्कुल अलहदा है कि राजभाषा बनकर हिंदी को फ़ायदे कम नुकसान ज़्यादा हुए. सरकारी हिंदी बन गई औपचारिक, रूखी और अनुवाद की भाषा. और वह भी बस खानापूर्ति को, बल्कि कई बार उतनी भी नहीं. न तो यह सही मायनों में राजभाषा बन सकी न सरकारी काजभाषा.
इसके कारण कई रहे होंगे और मैं उनमें नहीं जाना चाहता, पर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के विकास को सरकारी मशीनरी ने अवरुद्ध भले ही किया हो, गति तो नहीं दी. अगर हिंदी फिर भी जनभाषा है, विश्व में तीसरी-चौथी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़ुबान है, दिनों-दिन नये शब्द ग्रहण करती जीवंत बोली है, तो यह सरकारी मशीनरी के प्रयासों के बावजूद है, उनके कारण नहीं.
पर मनाने दीजिये सरकार को राजभाषा का एक दिन. आखिर यह आधिकारिक मामला है. इस बहाने साल में एक दिन तो समीक्षा करें कि आधिकारिक तौर पर इस दिशा में क्या काम हो रहा है. बस इसे हिंदी दिवस कहा जाना थोड़ा खटकता है. वैसे ही जैसे अगर आप स्वतंत्रता दिवस को भारत दिवस कहने लग जाएँ.
Posted by v9y at 10:33 am 4 comments