Wednesday, March 04, 2009

2008 RMIM पुरस्कार परिणाम

साल 2008 की हिंदी फ़िल्मों के गानों, एल्बमों, और कलाकारों में से श्रेष्ठ को चुनने की एक लंबी प्रक्रिया के बाद इस साल की पुरस्कार सूची हाज़िर है.

परिणाम हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में देखे जा सकते हैं.

Friday, January 02, 2009

2008 के RMIM पुरस्कारों के लिए नामांकन शुरू

आपमें से कुछ को पता होगा कि RMIM पुरस्कार के तहत साल भर के हिंदी फ़िल्म संगीत का एक लेखा-जोखा किया जाता है. 2008 के पुरस्कारों के लिए नामांकन प्रक्रिया अब चालू है. ये पुरस्कार श्रोताओं के पुरस्कार हैं और आप अपनी पसंद भी इसमें शामिल कर सकते हैं.

अपनी पसंद के गानों को नामांकित करने के लिए पुरस्कार मुखपृष्ठ पर जाएँ. सारी ज़रूरी जानकारी वहाँ हिन्दी में उपलब्ध है. पिछले साल के पुरस्कारों के परिणाम भी वहाँ देखे जा सकते हैं.

Tuesday, September 16, 2008

मीर की फ़िक्र वाली एक दोपहर

From UrduFest 2008

पिछले सप्ताहांत युनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जिनिया में दो दिवसीय 'उर्दूफ़ेस्ट' संपन्न हुआ. भारत से उर्दू के मशहूर लेखक-आलोचक शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी के अलावा अमेरिकी उर्दू विद्वान फ्रांसिस प्रिचेट और शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सी एम नईम ने भी पर्चे पढ़े. सम्मेलन का एक सत्र मीर की शायरी पर केंद्रित था और दिलचस्प रहा. "मीर सबसे बड़े शायर कि ग़ालिब" के झगड़े ने लता-आशा या किशोर-रफ़ी विवादों की तर्ज ले रखी थी :). अंतिम सत्र में मुशायरे से पहले फ़ारूक़ी साहब ने अपनी एक नई किताब से चंद पन्ने पढ़े. उनका साथ दिया उनकी बेटी मेह्र फ़ारूक़ी ने.

सम्मेलन की कुछ तस्वीरें देखिए.

Tuesday, July 01, 2008

वयस्क साक्षरता स्कोर - चीन 93, भारत 66

UNESCO ने मई 2008 में विश्व साक्षरता के नए आँकड़े प्रकाशित किए.

किन्हीं फ़्रेडरिक हूबलर ने अपने ब्लॉग पर इन आँकड़ो को दुनिया के नक्शे पर लगाकर दिखाया है. उनके विश्लेषण के अनुसार जिन 145 देशों के लिए आँकड़े उपलब्ध हैं उनमें वयस्क साक्षरता दर का माध्य 81.2% है. वयस्क साक्षरता दर यानी 15 साल या उससे बड़े लोगों की साक्षरता का प्रतिशत. 90% से ऊपर की दर वाले 71 देशों में से अधिकतर योरप, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया, और दक्षिण अमेरिका में हैं. जिन देशों का डाटा उपलब्ध नहीं है वहाँ भी दर 90% से अच्छी ही होने की अपेक्षा है क्योंकि उनमें से अधिकतर विकसित देश हैं. पिछड़े देशों में से लगभग सभी या तो अफ़्रीका में है या दक्षिण एशिया में.

सबसे बड़े दो देश चीन और भारत अलग-अलग तस्वीर पेश करते हैं. चीन में जहाँ 93.3% लोग पढ़-लिख सकते हैं, भारत में केवल 66%.

आँकड़े ख़ुद अपनी कहानी कहते हैं. पर इन्हें अलग नज़रियों से देखना अक्सर दिलचस्प नतीजे दे जाता है. ऊपर का विश्लेषण समस्या के भौगोलिक वर्गीकरण पर केंद्रित है. अब अगर इन्हीं आँकड़ों को भाषाई नज़रिये से देखा जाए तो देखिये क्या तस्वीर सामने आती है.

ये रहे शीर्ष 15 देश, उनका साक्षरता प्रतिशत, और उनकी आधिकारिक भाषाएँ:

एस्टोनिया - 99.8 - एस्टोनियन, वोरो
लातविया - 99.8 - लातवियन, लातगेलियन
क्यूबा - 99.8 - स्पैनिश
बेलारूस - 99.7 - बेलारूसी, रूसी
लिथुआनिया - 99.7 - लिथुआनियन
स्लोवेनिया - 99.7 - स्लोवेनियन
उक्रेन - 99.7 - उक्रेनी
कज़ाख़िस्तान - 99.6 - कज़ाख़
ताजिकिस्तान - 99.6 - ताजिक
रूस - 99.5 - रूसी
आर्मेनिया - 99.5 - आर्मेनियन
तुर्कमेनिस्तान - 99.5 - तुर्कमेन
अज़रबैजान - 99.4 - अज़रबैजानियन
पोलैंड - 99.3 - पोलिश
किरगिज़स्तान - 99.3 - किरगिज़

और अब देखिये साक्षरता दर में नीचे के 20 देश (भारत भी इनमें शामिल है):

भारत - 66 - अंग्रेज़ी, हिंदी
घाना - 65 - अंग्रेज़ी और स्थानीय भाषाएँ
गिनी बिसाउ - 64.6 - पुर्तगाली
हैती - 62.1 - फ्रांसीसी, हैती क्रिओल
यमन - 58.9 - अरबी
पापुआ न्यू गिनी - 57.8 - अंग्रेज़ी व 2 अन्य
नेपाल - 56.5 - नेपाली
मारिशियाना - 55.8 - फ्रांसीसी
मोरक्को - 55.6 - फ्रांसीसी, अरबी
भूटान - 55.6 - अंग्रेज़ी, जोंग्खा
लाइबेरिया - 55.5 - अंग्रेज़ी
पाकिस्तान - 54.9 - अंग्रेज़ी
बांग्लादेश - 53.5 - बांग्ला
मोज़ाम्बीक़ - 44.4 - पुर्तगाली
सेनेगल - 42.6 - फ्रांसीसी
बेनिन - 40.5 - फ्रांसीसी
सिएरा लियोन - 38.1 - अंग्रेज़ी
नाइजर - 30.4 - अंग्रेज़ी
बरकीना फ़ासो - 28.7 - फ्रांसीसी
माली - 23.3 - फ्रांसीसी

आपको कुछ कहते हैं ये आँकड़े?

क्या इनमें यह नहीं दिखता कि निचले अधिकतर देशों में आधिकारिक या शासन की भाषा आम लोगों द्वारा बोले जानी वाली भाषा से अलग (अक्सर औपनिवेशिक) है, जबकि सर्वाधिक साक्षर देशों में शिक्षा का माध्यम और शासन की भाषा वही है जो वहाँ के अधिकतर लोग बोलते हैं?

मैं ये नहीं कहता कि सिर्फ़ यही एक कारण होगा या इतना भी कि यही सबसे महत्वपूर्ण कारण है. ऐसा मानना एक गूढ़ समस्या का अतिसरलीकरण होगा. ऐसे कुर्सीविराजित-विश्लेषण (आर्मचेयर एनैलिसिस) में मेरा विश्वास भी नहीं है. पर क्या ये नज़रिया इतना वजनी भी नहीं है कि इस दिशा में कम से कम गंभीरता से सोचा जाए?

Monday, June 30, 2008

रेसिज़्म का एक भारतीय रूप

मृणाल पांडे भारतीय अकादमिक और पत्रकारिता जगत में व्याप्त भाषाई रेसिज़्म (नस्लवाद) के बारे में लिखती हैं:

I’ve known a lot of academicians and journalists who seriously believe that because they are eminent intellectuals they cannot be racists. As if being the one automatically rules out the other.
[...]
It is surprising that linguistic racism has never properly been debated in our urban feminist forums. Most Indian feminists who defend equality for women in all spheres continue to do so in English, which less than 3% of women understand. They are either unable or simply unwilling to recognize and confront this as an internal problem. Long innings in college staffrooms have also made me realize that while we all know that a tight segregation of students based on their proficiency in English exists on campuses, most of us would not admit to it within our own profession.
भाषाई नस्लवाद एक ऐसा विषय है जिससे भारतीय बुद्धिजीवी ने हमेशा मुँह चुराया है और जहाँ उसकी हिपोक्रिसी (पाखंड) और उसका दोहरा चरित्र साफ़ देखा जा सकता है. मृणाल इस मुद्दे को उठाने के लिए बधाई की पात्र हैं. पूरा लेख.

Wednesday, May 28, 2008

वैश्वीकरण का भाषाओं पर असर

फ्रीकोनॉमिक्स के स्टीवन डबनर ने अपने ब्लॉग पर एक पैनल से सवाल किया - वैश्वीकरण का भाषाओं पर क्या असर होगा?

चार लोगों का पैनल ("कोरम") था और जवाब दिलचस्प हैं. उनमें आशाएँ और आशंकाएँ दोनों दिखती हैं.

जॉन हेडन, जो अंग्रेज़ी सीखने वालों की एक सोशल वेबसाइट चलाने वाली कंपनी के प्रेसिडेंट हैं, का मानना है कि अंग्रेज़ी की प्रभुता जाते देर नहीं लगेगी. अभी व्यापारिक विश्व का केंद्र अंग्रेज़ी बोलने वाले देशों में है. पर ऐसा बदल भी सकता है -

English is like a cell phone provider offering the best plan. But if the dollar continues to drop, the most viable option could shift.
शायद ऐसा हो, पर ये कहना कि
[...] if you’re bidding on a contract in India, the proposal written in Hindi is sure to stand out.
उँ उँ... हमें पता है कि ऐसा है नहीं.

दूसरी ओर, हेनरी हिंचिंग्स, जो एक लेखक हैं, ज्यादा उत्साहित नहीं हैं -
It’s interesting that we think of nature conservation as something rather sexy, but language conservation on the whole gets dismissed as naïve and backward-looking.
उनके अनुमान में अधिकतर भाषाओं का भविष्य निराशाजनक है -
Realistically, fifty years from now the world’s big languages may be as few as three: Mandarin Chinese, Spanish, and English. Hindi, Bengali, Urdu, and Punjabi will also be pretty big — but chiefly because of massive population growth on their home turf. Arabic, too, will have grown — for religious reasons at least as much as economic ones.
At the other end of the scale, many languages will have disappeared, irrecoverably, and with them will have disappeared their cultures.
लैंग्वेज़ लॉग के मार्क लिबरमैन राष्ट्रीय या आधिकारिक भाषाओं को अधिक महत्व दिए जाने और स्थानीय छोटी भाषाओं के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये का अंत ऐसे देखते हैं -
If you’re going to combine many countries with different national languages — and do it by political compromise rather than by military conquest — then you can’t impose any single national language on the result. And once you admit a dozen or so national languages to official status in the resulting union, why not throw in a hundred more [...]?
उनका इशारा साफ-साफ भारत की स्थिति की ओर है. पर उनके जवाब में शामिल हिंदी और भारतीय भाषाओं की मिसाल पूरा सच नहीं बयान करती -
In 1950, the Indian constitution established Hindi as the official language of the central government, and the use of English as a “subsidiary official language,” inherited from the days of British colonial rule, was supposed to end by 1965. However, less than a sixth of the Indian population speaks Hindi natively, and for elite speakers of India’s other 400-odd languages, especially in the south, the imposition of Hindi felt like a kind of conquest, whereas continued use of English was an ethnically neutral option. So today, the authoritative version of acts of parliament is still the English one, Supreme Court proceedings are still in English, and so on.
पाठकों के कमेंट भी रोचक हैं. नम्बर 45 में एक पाठक, लिबरमैन की हिंदी मिसाल के जवाब में लिखते हैं -
It amazes me that anyone could claim India as an “English-speaking nation” anymore, and I strongly disagree with Mark Liberman above. I do a lot of work in India, and if anything, Hindi and other indigenous languages are rapidly gaining there, *at the expense of English*. Liberman seems to believe that English is viewed as a “neutral language” in multilingual nations, but that’s not the case– the political association of English with a resented colonial power led to its decline in Malaysia, Yemen, Burma and Iraq among other places, and is possibly behind the decline of English in Hong Kong.
अनुमानों की ही बात है तो मेरा मानना है कि वैश्वीकरण के वर्तमान बाज़ार की भाषा मुख्यतया अंग्रेज़ी होने के बावजूद, तकनीकी प्रगति और इंटरनेट की व्यापकता भाषाई विविधता को मजबूत ही करेगी. अंग्रेज़ी कम से कम आने वाले कई सालों तक तो विश्व व्यापार और कुछ विशिष्ट विषयों की भाषा बनी रहेगी. पर अंग्रेज़ी जानना और अंग्रेज़ी बोलना अलग-अलग बातें हैं और यही स्थिति आगे रहेगी. कामचलाऊ अंग्रेज़ी जाननेवालों की संख्या में इजाफा होगा. रोजमर्रा या पसंद से अंग्रेज़ी बोलने वालों का प्रतिशत घटेगा.

स्थानीयता भाषा का एक मूल तत्व है. वैश्वीकरण इस तत्व के विरुद्ध काम करता है. यह खिंचाव भाषा के नए रूपों को जन्म दे सकता है और शब्दों की हेराफेरी बढ़ सकती है. पर यह नहीं भूलना चाहिए कि सफल वैश्वीकरण का मूल मंत्र है - स्थानीयकरण. "Be Global, Act Local" स्थानीय भाषाओं के हित में ही जाएगा. अभी तक तो यही दिख रहा है.

Tuesday, May 27, 2008

महेश भट्ट : फिल्मी सितारों का हिन्दी नहीं बोलना अपनी माँ को गिरवी रखने जैसा

फिल्मी और टीवी दुनिया से जुड़ा हर सितारा न्यूयॉर्क टाईम्स में अपनी खबर और फोटो देखना चाहता है जबकि उसको नाम और पैसा हिन्दी के दर्शकों से मिलता है। आज हर सितारा अपनी शख्सियत और अपनी पहचान अंग्रेजी में बनाना चाहता है, आज फिल्म उद्योग में हिन्दी न जानना और गलत हिन्दी बोलना सम्मान की बात हो गई है। महेश भट्ट ने कहा कि इस अंग्रेजी मानसिकता से पूरा देश आज एक बार फिर गुलाम होता जा रहा है।  

- महेश भट्ट, २७ मई २००७

पूरा लेख, कड़ी के लिए दीवान का आभार।

Thursday, May 08, 2008

चीनी हो या जापानी, अब समझे हिंदुस्तानी

गूगल के भाषाई तोहफ़े जारी हैं. गूगल ट्रांसलेट के आज जारी नए अंतरपटल के जरिए हिंदी से केवल अंग्रे़ज़ी ही नहीं विश्व की कई लोकप्रिय भाषाओं से दुतरफा अनुवाद संभव हो गया है.

यानी पूरी दुनिया की बात आप और आपकी बात पूरी दुनिया समझ सकती है. चीनी या जापानी में लिखे वेब पन्ने भी आपके लिए अब भैंस बराबर नहीं रहेंगे और आपका ब्लॉग अब किसी अरब, इतालवी, या फ्रेंच के लिए भी पल्ले से बाहर नहीं रहेगा. गूगल ने वाकई दुनिया छोटी कर दी है.

उदाहरण के लिए, इस पन्ने को रुसी, फ्रांसीसी, जर्मन, स्पैनिश भाषाओं में देखिए.

साथ ही चीनी साइट बाइदू हो या अरबी का अख़बार अशरक़ अल-अवसात, अब आप इन्हें अपनी भाषा में अपने जाने पहचाने अक्षरों में पढ़ सकते हैं.

हिंदी पाठकों के लिए दुनिया के दरवाज़े इस कदर पहले शायद कभी नहीं खुले. अधपके अनुवाद का धुँधलका ज़रूर है, पर तस्वीर समझ में आ ही जाती है.


अब सीएनएन के पन्ने को ऐसे हिंदी में देखने के लिए उनके हिंदी संस्करण का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं.

Thursday, May 01, 2008

Lost in translation = अनुवाद में खो गए

1 मई 2008 - गूगल ने हिंदी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिंदी मशीनी अनुवाद सेवा शुरू की. इसके जरिये किसी एक शब्द से लेकर किसी पूरे वेब पन्ने का भाषांतरण किया जा सकता है.

मसलन, इस ब्लॉग को अंग्रेज़ी में पढ़िए. और जैसा कि मशीनी अनुवादों में अक्सर होता है, सिर खुजाने और ठहाका लगाने के लिए भी तैयार रहिए. पर आप चाहें तो अनुवादों को सुधारने में गूगल की मदद भी कर सकते हैं.

धन्यवाद गूगल!

[अनुनाद के जरिए]

Thursday, April 24, 2008

एक दिन कम्प्यूटर के बिना

आदतें कितनी जल्दी गुलाम बना लेती हैं. हालत ये हो गई है कि अब एक दिन के लिए भी कम्प्यूटर (और इंटरनेट) बिल्कुल छोड़ देना लगभग खाना छोड़ने जैसा मुश्किल लगता है. पर मैंने कई बार ऐसा करके देखा है और पाया है कि वो दिन बड़ा बढ़िया गुजरता है. तीन मई को कुछ लोग (डेनिस बाइस्ट्रोव और आशुतोष राजेकर के आह्वान पर) फिर ऐसा करने का बहाना दे रहे है - मौका है शटडाउन दिवस का. चलिए, मेरा कम्प्यूटर तो बंद रहेगा. आप भी कहीं घूम आइए.

Wednesday, March 12, 2008

हिंदुस्तानी जॉन डो

अमेरिका में कानूनी मसलों में जब तक किसी पुरुष पक्ष की वास्तविक पहचान नहीं हो पाती उसे अदालती कारवाई में जॉन डो कहा जाता है. महिला पक्ष के लिए यह प्लेसहोल्डर है जेन डो. ये नाम अदालत से बाहर भी अनाम या आम व्यक्ति के तौर पर पहचान के लिए धड़ल्ले से बरते जाते हैं. मसलन, 1941 में फ़्रैंक कैप्रा ने एक फ़िल्म बनाई थी - मीट जॉन डो*, जोकि एक आम आदमी की कहानी थी (न देखी हो तो देख डालिए). इसके अलावा भी पॉपुलर कल्चर में इनका इस्तेमाल आम है.

लगभग हर देश के अपने-अपने जॉन और जेन डो हैं. पर भारत में अभी हाल तक ऐसा कोई नाम प्रचलन में नहीं था. अदालतों में "नामालूम" शब्द से काम चलता आ रहा है. पर आखिर भारतीय कोर्टों ने भी अपना हिंदुस्तानी जॉन डो ढूँढ लिया लगता है. और वह है - अशोक कुमार (दादा मुनि, आप वैसे अमर न हुए होते तो ऐसे हो जाते). महिलाओं के लिए अभी तक कोई विशेष नाम प्रचलन में नहीं है. पर शायद जल्दी ही हो जाए. वैसे मीना कुमारी कैसा रहेगा? ख़ैर..

तो ब्लॉगर साहेबान, अगली बार अगर आपको अशोक कुमार के नाम से कोई टिप्पणी देता दिखे तो उसे एक अनजान, आम आदमी की प्रतिक्रिया मानिएगा, अपने पड़ोसी अशोक बाबू की नहीं.

*90 के दशक में इस फ़िल्म की लगभग हूबहू हिंदी कॉपी जावेद अख़्तर की कलम से निकली थी. नाम रखा था मैं आज़ाद हूँ. पर लगता है भारतीय अदालतों को जावेद अख़्तर का सुझाव जँचा नहीं.

[लैंग्वेजहैट के जरिए]

Friday, March 07, 2008

कच्ची गाजर, पक्का गाजर

हिंदी में लिंगभेद पर जो छोटा सा सर्वेक्षण हमने किया था उसके परिणाम बिना किसी हील-हुज्जत के सामने रख रहा हूँ. विश्लेषण और चर्चा का काम आप पर छोड़ता हूँ.

सर्वे में पूछा यह गया था कि आप दही, गाजर, प्याज, आत्मा, चर्चा, धारा, ब्लॉग, ईमेल, और गिलास को पुल्लिंग की तरह प्रयोग करते हैं या स्त्रीलिंग की तरह. 19 से लेकर 60 वर्ष तक की आयु वाले कुल 39 लोगों ने अपने जवाब भरे. इनमें से 28 की मातृभाषा हिंदी थी, 11 की कोई और. गैर मातृभाषियों में 5 अमेरिका से, और 1-1 इटली, केरल, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, और उत्तराखंड से थे.





मातृभाषियों के उत्तर

हिंदी मातृभाषियों में सबसे अधिक दुविधा प्याज और ईमेल के लिंग के बारे में दिखी. प्याज को स्त्रीलिंग बताने वालों में 5 उत्तरप्रदेशी, 3 मध्यप्रदेशी, और 1 दिल्ली वाले थे. उत्तरप्रदेश के 35% और बिहार, उत्तराखंड, और महाराष्ट्र के सभी हिंदी मातृभाषियों ने गाजर को पुल्लिंग बताया; सभी मध्यप्रदेश और राजस्थान वालों ने स्त्रीलिंग. दिलचस्प बात है कि ईमेल को पुल्लिंग बताने वालों में भी बिहार, उत्तराखंड, और महाराष्ट्र के सभी हिंदीभाषी शामिल थे. आत्मा, चर्चा, धारा के स्त्रीलिंग होने पर लगभग सभी एकमत थे. इसी तरह ब्लॉग और गिलास के पुल्लिंग होने पर भी एक राय दिखी. राजस्थान के सभी हिस्सा लेने वाले आत्मा के अलावा सभी शब्दों पर एकमत दिखे. इसी तरह दिल्ली वालों में दही और प्याज को छोड़कर बाकी सभी के लिंगों पर सहमति दिखी.



गैर-मातृभाषियों के उत्तर

गैर हिंदी मातृभाषियों में ब्लॉग (पु.), प्याज (पु.), और धारा (स्त्री.) पर लगभग सहमति दिखी. आत्मा और धारा के स्त्रीलिंग होने पर सभी अमेरिकी एकमत थे. पंजाब और इटली के वोटों के अनुसार आत्मा पुल्लिंग है. गाजर केरल, महाराष्ट्र, और मध्यप्रदेश के वोटों में पुल्लिंग था तो उत्तराखंड, पंजाब, और इटली के वोटों में स्त्रीलिंग थी. दही को केरल और मध्यप्रदेश के गैर मातृभाषी वोटों ने स्त्रीलिंग माना. चार्ट यह रहा:



अब देखें कि शब्दकोश क्या कहते हैं. फ़िलहाल प्लैट्स के हिसाब से देखते हैं. यह प्रतिष्ठित शब्दकोश ऑनलाइन भी उपलब्ध है. ध्यान रखने की बात यह है कि प्लैट्स 100 साल से ज़्यादा पुराना है और संभव है कि कुछ लिंग प्रयोग इन सालों में बदल गए हों. इसके अलावा ईमेल या ब्लॉग जैसे नए शब्द भी इससे नदारद होंगे. अगर आपके पास दूसरे शब्दकोश हों और उनमें भिन्न राय हों तो ज़रूर लिखें. तो देखें प्लैट्स महाशय क्या कहते हैं.

दही - पुल्लिंग - H दही dahī, corr. धई dhaʼī [Prk. दहिअं; S. दधि+कं], s.m.

गाजर - पुल्लिंग और स्त्रीलिंग - H गाजर gājar, (rustic) गाजिर gājir [Prk. गज्जरं; S. गर्जरं], s.f. & m.

प्याज - स्त्रीलिंग - P piyāz, s.f. Onion;
यहाँ देख सकते हैं कि न केवल शब्द का उच्चारण और वर्तनी बदल गये हैं, बल्कि अधिकतर हिंदीभाषी अब इसे पुल्लिंग बरतते हैं. एक रुचिकर बात - हिंदी का कांदा पुल्लिंग है और देखा गया है कि आयातित शब्दों के लिंग निर्धारण में पहले से मौजूद समानार्थक शब्द के लिंग का गहरा प्रभाव होता है.

आत्मा - पुल्लिंग और स्त्रीलिंग - S आत्मा ātmā, s.m.f.

चर्चा - शब्दार्थ भेद के अनुसार पुल्लिंग या स्त्रीलिंग - H चर्चा ćarćā [S. चर्चकः, rt. चर्च्]
चर्चा के दो अर्थ हैं. अपने पहले अर्थ अफ़वाह या "Popular talk" के मायनों में यह पुल्लिंग है. पर अपने दूसरे अर्थों बहस, विचार-विमर्श, या "mention" के लिए प्रयोग में यह स्त्रीलिंग है.

धारा - स्त्रीलिंग - S धारा dhārā, s.f.
धारा का पुल्लिंग प्रयोग उर्दू में आम है. आप सबने शकील बदायूँनी का वो गाना ज़रूर सुना होगा - तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा..

तो ये थे हिंदी लिंगभेद सर्वेक्षण के परिणाम. सर्वेक्षण मेरे लिए मज़ेदार और ज्ञानवर्द्धक रहा. भाग लेने वालों का शुक्रिया. और जो बिना भाग लिए भाग लिए उन्हें तख़लिया.

Thursday, March 06, 2008

"यह पाकिस्तानी परंपरा नहीं है"

फ़िल्मों की भाषा आम तौर पर एक बड़े व्यापक वर्ग को ध्यान में रखकर लिखी जाती है. ख़ासकर अगर विषय-वस्तु ऐतिहासिक या आंचलिक न हो. कोशिश यह दिखती है कि ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हो जो पूरे देश (और विदेश) के लोग समझ पाएँ. पर टीवी में दर्शकवर्ग अधिक केंद्रित होता है. और इसी वजह से टीवी की भाषा में आम तौर पर ऐसे शब्द मिल जाते हैं जो लक्षित क्षेत्र-विशेष के बाहर के लोगों के लिए अपरिचित होते हैं.

पर अब सैटेलाइट के ज़माने में टीवी अपनी क्षेत्रीय प्रसारण सीमाओं से आज़ाद हो चुका है. हिंदी टीवी के कार्यक्रम अमेरिका, खाड़ी क्षेत्र, और पाकिस्तान में भी रुचि से देखे जाते हैं. और इस फैलाव के साथ ही फैल रहे हैं शब्द. इसमें कोई शक नहीं कि एक आम हिंदीभाषी की उर्दू शब्दावली बढ़ाने में फ़िल्मों और फ़िल्मी गानों का बहुत हाथ रहा है. अब ऐसा ही कुछ पाकिस्तान में हिंदी शब्दावली के लिए टीवी कर रहा है. एक दिलचस्प लेख में देवीरूपा मित्रा लिखती हैं,

"A quick survey of Pakistanis, particularly the young and women in cities, showed that they were familiar with some of the more difficult Hindi words.

"Sometimes, I find myself saying, 'yeh Pakistani parampara nahin hai' (this is not Pakistani tradition), which causes my husband to look at me strangely," said Nadia Bano, a 32-year-old Islamabad housewife.

[...]

"On a Pakistani web forum debating the "Indian invasion" through TV soaps and films, a netizen wrote, "To learn the other dialect all a Paki need do is to watch STAR Plus and he'll pick up Sanskrit vocabulary".

"He listed several words that he had picked up by watching Indian entertainment channels - parivar (family), parampara (tradition), prarthana (prayer), puja (worship), shanti (peace), dharam (religion), aatmahatya (suicide) and pradhan mantri (prime minister)."

Wednesday, March 05, 2008

प्रश्नोत्तरंग

जब तक इंटरनेट लोगों के घर तक, उनकी अपनी भाषा में, आसान रूप में नहीं पहुँचता (कभी पहुँचेगा भी?), तब तक के लिए एक उपाय - क्वेश्चन बॉक्स.

परिकल्पना बड़ी सीधी है - लोग इसके जरिये एक ऑपरेटर को फ़ोन कर अपने सवाल पूछते हैं, ऑपरेटर इंटरनेट से उनके जवाब ढूँढ़ कर उन्हें वापस बताता है. ये बक्से प्रयोग के तौर पर अभी दिल्ली के पास, नोयडा के बाहर, दो कस्बों में लगाए गए हैं.

कल कोरी डॉक्टरो ने बोइंग बोइंग पर इसका ज़िक्र किया है. मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि बड़े पैमाने पर इसका काम कर पाना मुश्किल होगा. यह तरीका शहरों या बड़े कस्बों के लिए मुझे बहुत कुशल नहीं लग रहा. आप क्या सोचते हैं?

2007 के RMIM पुरस्कार घोषित

इस ब्लॉग के संगीत प्रेमी पाठकों को याद होगा कि कुछ अर्से पहले मैंने यहाँ RMIM पुरस्कार के लिए नामांकन आरम्भ की घोषणा की थी. क़रीब दो महीने की नामांकन और ज्यूरी अंकन प्रक्रिया के बाद अब नतीजे सामने हैं. साल 2007 की हिंदी फ़िल्मों के कुछ चुनिंदा गानों, एल्बमों, और कलाकारों की सूची आपके लिए प्रस्तुत है.

एक ख़ास बात - इस बार ज्यूरी में हिंदी में ब्लॉग लिखने वाले और आपके सुपरिचित दो चिट्ठाकार भी शामिल थे. नाम का अंदाज़ा लगाना कुछ ख़ास मुश्किल नहीं है पर मैं बता देता हूँ - मनीष और यूनुस. उन्हें शुक्रिया.

परिणाम हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में उपलब्ध हैं. इस बारे में अपनी प्रतिक्रिया आप गीतायन ब्लॉग की परिणाम घोषणा प्रविष्टि के कमेंट बक्से में कर सकते हैं या यहीं पर. कड़ी फिर से ये रही:

RMIM पुरस्कार 2007 परिणाम