जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में / कठफोड़वा लौटता है काठ के पास /
ओ मेरी भाषा! मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ / दुखने लगती है मेरी आत्मा
-केदारनाथ सिंह
Thursday, October 05, 2006
जर्मनागरी
फ़्रैंकफ़र्त में २००६ का पुस्तक मेला चल रहा है और भारत सम्माननीय अतिथि है। मेले और भारतीय साहित्यिक परिदृष्य पर हिंदी में एक वेबसाइट भी बनाई गई है। पर बात यहीं तक सीमित नहीं है। मुख्य मीडिया भी उत्साहित दिखाई देता है। जर्मन अख़बार डी टागसज़ाइटुंग ने अपने कल (४ अक्टूबर) के अंक का मुखपृष्ठ अपने नाम के नागरी रूप के साथ छापा है। देखिये जर्मन और हिंदी का मेल (पीडीएफ़ प्रारूप)।
(छवि सौजन्य: साँभर माफ़िया)
Monday, October 02, 2006
सूरत बदलनी चाहिए
पिछले हफ़्ते जब मैंने मीन-मेख अभियान शुरू करने का ज़िक्र किया था तो मुझे विशेष प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी. पर प्रतिक्रियाएँ मिलीं और अच्छी मिलीं. लोग सकारात्मक दिखाई दिए और कइयों ने अपने चिट्ठे पर आने का न्यौता भी दिया. मैंने भी कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियों में इस बारे में लिखना शुरू किया. इस बात का ध्यान रखा कि जिन्होंने रुचि दिखाई है, या न्यौता दिया है, वहीं जाऊँ. पर लगता है कि कुछ लोगों को बुरा लगा. जैसे समीर लाल जी को, भले ही उन्होंने यह बताने के लिए हास्य का सहारा लिया है (जोकि उनका बड़प्पन है).
पर मुद्दे पर आऊँ उससे पहले एक दो बातें और कहना चाहूँगा.
मैं निंदक नहीं हूँ. निंदक और आलोचक में भी फ़र्क होता है. और मैं तो आलोचक भी नहीं. मुझे तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रूफ़रीडर कह सकते हैं. या थोड़ा अधिक सम्माननीय होना चाहें तो उत्प्रेरक (कुछ सीखने का) कह लें. पर निंदक? न.
मैं "व्याकरणाचार्य" भी नहीं हूँ :). अनूप जी की तो मौज लेने की आदत है. पर जो उनकी इस आदत से नावाक़िफ़ हों उनके लिए स्पष्ट कर देना ज़रूरी है. मैं भी आपमें से अधिकतर की ही तरह एक सामान्य हिंदी भाषी हूँ. न तो मैं कोई भाषाविद हूँ न भाषाविज्ञ. भाषा में रुचि रखने वाला या शिक्षार्थी हूँ. यह हिंदी का दुर्भाग्य होगा अगर किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इस बिना पर कि वह ठीक हिंदी लिखता है, व्याकरणाचार्य या भाषाविद समझा जाए. ठीक हिंदी लिखना हर हिंदी लेखक की बुनियाद होनी चाहिए, उसकी विशेषता नहीं.
ख़ैर, अब मुद्दे पर आता हूँ. सार्वजनिक रूप से ग़लतियाँ बताना कुछ को खला है (हाँ, सार्वजनिक रूप से ग़लतियाँ *करने* में वे कोई बुराई नहीं मानते :)). खुली टिप्पणियों में सुधारों का ज़िक्र करने के पीछे मंशा यह थी कि चिट्ठा लिखनेवाले के अलावा उसे पढ़नेवाले भी फ़ायदा उठा सकेंगे. पर न तो मैं चाहता हूँ कि किसी को बुरा लगे, न ही किसी की कमियाँ दिखाना मेरा ध्येय है. दुष्यंत को उद्धृत करूँ तो:
पर घबराइये मत (या अगर आप दूसरी तरफ़ हैं तो ख़ुश मत होइये :)), इतनी जल्दी मैं हार नहीं मान रहा. बस ये कुछ बदलाव तय किये हैं मैंने इस अभियान में.
॰ अब मैं सार्वजनिक रूप से उन टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं करूँगा. अधिकतर चिट्ठों में 'टिप्पणी मध्यस्थन' सुविधा है. ऐसे चिट्ठेवालों से अनुरोध है कि मेरी टिप्पणियों में सुझाए सुधार देखें, हो सके तो प्रविष्टि की ग़लतियाँ सुधार लें और फिर मेरी पोस्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दें. यानी उसे प्रकाशित मत करें.
॰ जिन चिट्ठों पर ऐसी सुविधा नहीं है वहाँ मैं टिप्पणियाँ नहीं छोड़ूँगा.
॰ कोशिश करूँगा कि दिवाली तक यह सफ़ाई अभियान खींच जाऊँ.
॰ कोशिश करूँगा कि दिन में कम से कम एक जगह तो झाड़ू लगा ही दूँ.
॰ कोशिश रहेगी कि जिसने रुचि दिखाई हो, पहले (या शायद सिर्फ़) वहीं जाऊँ.
आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. इससे मुझे यह भी पता चलेगा कि आपकी इस सुधार में रुचि है और आपको कोई आपत्ति नहीं है. बस, महज शिष्टाचारवश ऐसा मत करें. अब ये कहाँ का शिष्टाचार कि किसी को अपने घर के जाले निकालने बुलाओ और जब वह निकाले तो कहो कि भई सचमुच थोड़े ही बुलाया था :).
पर मुद्दे पर आऊँ उससे पहले एक दो बातें और कहना चाहूँगा.
मैं निंदक नहीं हूँ. निंदक और आलोचक में भी फ़र्क होता है. और मैं तो आलोचक भी नहीं. मुझे तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रूफ़रीडर कह सकते हैं. या थोड़ा अधिक सम्माननीय होना चाहें तो उत्प्रेरक (कुछ सीखने का) कह लें. पर निंदक? न.
मैं "व्याकरणाचार्य" भी नहीं हूँ :). अनूप जी की तो मौज लेने की आदत है. पर जो उनकी इस आदत से नावाक़िफ़ हों उनके लिए स्पष्ट कर देना ज़रूरी है. मैं भी आपमें से अधिकतर की ही तरह एक सामान्य हिंदी भाषी हूँ. न तो मैं कोई भाषाविद हूँ न भाषाविज्ञ. भाषा में रुचि रखने वाला या शिक्षार्थी हूँ. यह हिंदी का दुर्भाग्य होगा अगर किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इस बिना पर कि वह ठीक हिंदी लिखता है, व्याकरणाचार्य या भाषाविद समझा जाए. ठीक हिंदी लिखना हर हिंदी लेखक की बुनियाद होनी चाहिए, उसकी विशेषता नहीं.
ख़ैर, अब मुद्दे पर आता हूँ. सार्वजनिक रूप से ग़लतियाँ बताना कुछ को खला है (हाँ, सार्वजनिक रूप से ग़लतियाँ *करने* में वे कोई बुराई नहीं मानते :)). खुली टिप्पणियों में सुधारों का ज़िक्र करने के पीछे मंशा यह थी कि चिट्ठा लिखनेवाले के अलावा उसे पढ़नेवाले भी फ़ायदा उठा सकेंगे. पर न तो मैं चाहता हूँ कि किसी को बुरा लगे, न ही किसी की कमियाँ दिखाना मेरा ध्येय है. दुष्यंत को उद्धृत करूँ तो:
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
पर घबराइये मत (या अगर आप दूसरी तरफ़ हैं तो ख़ुश मत होइये :)), इतनी जल्दी मैं हार नहीं मान रहा. बस ये कुछ बदलाव तय किये हैं मैंने इस अभियान में.
॰ अब मैं सार्वजनिक रूप से उन टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं करूँगा. अधिकतर चिट्ठों में 'टिप्पणी मध्यस्थन' सुविधा है. ऐसे चिट्ठेवालों से अनुरोध है कि मेरी टिप्पणियों में सुझाए सुधार देखें, हो सके तो प्रविष्टि की ग़लतियाँ सुधार लें और फिर मेरी पोस्ट को रद्दी की टोकरी में डाल दें. यानी उसे प्रकाशित मत करें.
॰ जिन चिट्ठों पर ऐसी सुविधा नहीं है वहाँ मैं टिप्पणियाँ नहीं छोड़ूँगा.
॰ कोशिश करूँगा कि दिवाली तक यह सफ़ाई अभियान खींच जाऊँ.
॰ कोशिश करूँगा कि दिन में कम से कम एक जगह तो झाड़ू लगा ही दूँ.
॰ कोशिश रहेगी कि जिसने रुचि दिखाई हो, पहले (या शायद सिर्फ़) वहीं जाऊँ.
आपकी टिप्पणियों का स्वागत है. इससे मुझे यह भी पता चलेगा कि आपकी इस सुधार में रुचि है और आपको कोई आपत्ति नहीं है. बस, महज शिष्टाचारवश ऐसा मत करें. अब ये कहाँ का शिष्टाचार कि किसी को अपने घर के जाले निकालने बुलाओ और जब वह निकाले तो कहो कि भई सचमुच थोड़े ही बुलाया था :).
Thursday, September 28, 2006
गलत गलत अभ्यास से...
कुछ अर्सा हुआ, आलोक ने एक अभियान शुरू किया था - चिट्ठों पर वर्तनी और व्याकरण की भूलों की ओर इशारा करने का. मेरे विचार से बड़ा ही उम्दा अभियान था, और बहुत ज़रूरी. अगर हिंदी चिट्ठों की वर्तमान स्थिति का जायज़ा लिया जाए तो यह सबसे ज़्यादा चिंता का विषय है. अपनी बात कहूँ तो अगर अँगरेज़ी के किसी चिट्ठे में मुझे इस क़दर वर्तनी अशुद्धियाँ मिलें तो मैं एक पैरे से आगे न बढ़ूँ और उस चिट्ठे पर लौटूँ तक नहीं. अक्सर कई हिंदी चिट्ठों के साथ भी ऐसा करने की इच्छा होती है, और कुछ के साथ किया भी है, पर कुछ मजबूरी में और कुछ लत की वजह से चलता रहता है.
मेरी बात कइयों को बुरी लग सकती है. अगर लगे तो माफ़ी. और चाहें तो मुझे भला-बुरा भी कह लें. पर इस बारे में ज़रा सोचें. ग़लतियों से मेरा उतना झगड़ा नहीं है, जितना न सीखने की प्रवृत्ति से है, उनके दोहराव से है. भाषा केवल ख़ुद के लिए नहीं होती. जब आप दूसरों के लिए लिखते हैं तो कम से कम इसका ख़याल रखें कि लोग आपकी बात ठीक-ठीक बिना अटके, बिना झुँझलाये समझ सकें. अब यह मत कहें कि मैं तो बस अपने लिए लिखता/ती हूँ. अगर आपका ब्लॉग सार्वजनिक है, आप दूसरों की टिप्पणियाँ लेते हैं और उनका जवाब देते हैं, तो आप दूसरों से बात कर रहे हैं. अगर हर कोई हिज्जों के अपने अपने संस्करणों का प्रयोग करने लगे तो संवाद मुश्किल हो जाएगा. साहित्य और कविता के चिट्ठों में तो ऐसी ग़लतियाँ अक्षम्य हैं. इन अशुद्धियों को लेखन-शैली से मत जोड़ें. शैली व्यक्तिगत होती है, व्याकरण और वर्तनियाँ नहीं.
अक्सर कई लोगों का तर्क होता है कि आप सामग्री पढ़िये न, अशुद्धियाँ को क्यों देखते हैं; जो लिखा है वह महत्वपूर्ण है. बेशक है. वह ज़्यादा महत्वपूर्ण है. पर खाना भले कितना ही स्वादिष्ट बना हो, अगर उसमें एक भी कंकर निकल आए तो पूरा मज़ा बिगड़ जाता है. फिर यह नहीं देखा जाता कि भई स्वाद तो अच्छा है. और जब कंकरों की लाइन लगी हो फिर तो खाना छोड़ने के अलावा कोई उपाय नहीं. दुनिया भर के संपादक और लेखक अगर अपनी प्रकाशित रचनाओं में इन चीज़ों का ध्यान रखते हैं, और इस पर अच्छा खासा समय देते हैं, तो इसलिए नहीं कि वे बेवकूफ़ हैं.
अनुरोध है कि थोड़ा ध्यान दीजिए. ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है. हममें से अधिकतर को अँगरेज़ी में पढ़ने-लिखने की आदत रही है. पर अब आप हिंदी में लिख रहे हैं तो हिंदी के प्रति कुछ सम्मान भी होना चाहिये. चलिए हिंदी के प्रति सम्मान न भी हो, अपने पाठक के प्रति तो होना ही चाहिए. लेखक अगर अपनी भाषा ही अच्छी तरह न जाने तो उसे कैसे पाठक मिलेंगे. हिंदी सीखने पर थोड़ा वक़्त देना नाजायज़ नहीं है. इसका फ़ायदा आख़िर आप ही को होना है. ग़लतियाँ जानने की कोशिश करना, लोगों से ग़लतियाँ पूछना, कोई बताये तो नाराज़ न होना, उन्हें सुधारना (ग़लतियों को, बताने वालों को नहीं :)), शब्दकोषों की मदद लेना, ये इस दिशा में कुछ शुरुआती क़दम हो सकते हैं.
आलोक तो फिलहाल व्यस्त लगते हैं. सोच रहा हूँ उनके काम को मैं जारी रखूँ. तो जहाँ तक हो सकेगा कोशिश करूँगा कि चिट्ठों को पढ़ते समय अगर मुझे कुछ ग़लत लगे तो टिप्पणी में लिख दूँ. अगर किसी को अपने चिट्ठे पर मेरा ऐसा करना बुरा लगे तो ज़रूर बताए. मैं आगे से वहाँ ऐसा नहीं करूँगा. साथ ही मेरी ग़लतियों पर भी ध्यान दिलाएँ, आभारी हूँगा.
मेरी बात कइयों को बुरी लग सकती है. अगर लगे तो माफ़ी. और चाहें तो मुझे भला-बुरा भी कह लें. पर इस बारे में ज़रा सोचें. ग़लतियों से मेरा उतना झगड़ा नहीं है, जितना न सीखने की प्रवृत्ति से है, उनके दोहराव से है. भाषा केवल ख़ुद के लिए नहीं होती. जब आप दूसरों के लिए लिखते हैं तो कम से कम इसका ख़याल रखें कि लोग आपकी बात ठीक-ठीक बिना अटके, बिना झुँझलाये समझ सकें. अब यह मत कहें कि मैं तो बस अपने लिए लिखता/ती हूँ. अगर आपका ब्लॉग सार्वजनिक है, आप दूसरों की टिप्पणियाँ लेते हैं और उनका जवाब देते हैं, तो आप दूसरों से बात कर रहे हैं. अगर हर कोई हिज्जों के अपने अपने संस्करणों का प्रयोग करने लगे तो संवाद मुश्किल हो जाएगा. साहित्य और कविता के चिट्ठों में तो ऐसी ग़लतियाँ अक्षम्य हैं. इन अशुद्धियों को लेखन-शैली से मत जोड़ें. शैली व्यक्तिगत होती है, व्याकरण और वर्तनियाँ नहीं.
अक्सर कई लोगों का तर्क होता है कि आप सामग्री पढ़िये न, अशुद्धियाँ को क्यों देखते हैं; जो लिखा है वह महत्वपूर्ण है. बेशक है. वह ज़्यादा महत्वपूर्ण है. पर खाना भले कितना ही स्वादिष्ट बना हो, अगर उसमें एक भी कंकर निकल आए तो पूरा मज़ा बिगड़ जाता है. फिर यह नहीं देखा जाता कि भई स्वाद तो अच्छा है. और जब कंकरों की लाइन लगी हो फिर तो खाना छोड़ने के अलावा कोई उपाय नहीं. दुनिया भर के संपादक और लेखक अगर अपनी प्रकाशित रचनाओं में इन चीज़ों का ध्यान रखते हैं, और इस पर अच्छा खासा समय देते हैं, तो इसलिए नहीं कि वे बेवकूफ़ हैं.
अनुरोध है कि थोड़ा ध्यान दीजिए. ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है. हममें से अधिकतर को अँगरेज़ी में पढ़ने-लिखने की आदत रही है. पर अब आप हिंदी में लिख रहे हैं तो हिंदी के प्रति कुछ सम्मान भी होना चाहिये. चलिए हिंदी के प्रति सम्मान न भी हो, अपने पाठक के प्रति तो होना ही चाहिए. लेखक अगर अपनी भाषा ही अच्छी तरह न जाने तो उसे कैसे पाठक मिलेंगे. हिंदी सीखने पर थोड़ा वक़्त देना नाजायज़ नहीं है. इसका फ़ायदा आख़िर आप ही को होना है. ग़लतियाँ जानने की कोशिश करना, लोगों से ग़लतियाँ पूछना, कोई बताये तो नाराज़ न होना, उन्हें सुधारना (ग़लतियों को, बताने वालों को नहीं :)), शब्दकोषों की मदद लेना, ये इस दिशा में कुछ शुरुआती क़दम हो सकते हैं.
आलोक तो फिलहाल व्यस्त लगते हैं. सोच रहा हूँ उनके काम को मैं जारी रखूँ. तो जहाँ तक हो सकेगा कोशिश करूँगा कि चिट्ठों को पढ़ते समय अगर मुझे कुछ ग़लत लगे तो टिप्पणी में लिख दूँ. अगर किसी को अपने चिट्ठे पर मेरा ऐसा करना बुरा लगे तो ज़रूर बताए. मैं आगे से वहाँ ऐसा नहीं करूँगा. साथ ही मेरी ग़लतियों पर भी ध्यान दिलाएँ, आभारी हूँगा.
Thursday, September 14, 2006
हिंदी का एक दिन
सरकार का कहना है कि आज हिंदी दिवस है.
प्राकृतिक भाषाएँ एक दिन में जन्म नहीं लेतीं, इसलिये उनके जन्म-दिवस नहीं होते. यही कारण है कि आपने कभी फ़्रांसीसी दिवस या अँगरेज़ी दिवस नहीं सुने होंगे. ऐसे देशों में भी जहाँ माँ-बाप-भाई-बहन-पत्नी-चाचा-ताउओं के लिए भी दिन तय होते हैं, किसी भाषा का कोई ख़ास सरकारी या ग़ैरसरकारी दिन नहीं होता. फिर हमें ये क्या सूझी?
देखा जाए तो ग़लती तकनीकी है. १४ सितम्बर को हिंदी दिवस मनाने का कारण यह नहीं कि इस दिन हिंदी का जन्म हुआ था, या उस दिन इसका नाम पहली बार हिंदी पड़ा. बल्कि यह है कि १९४९ की १४ सितम्बर को हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला था. तो क़ायदे से इसे राजभाषा दिवस कहा जाना चाहिए. भाषा दिवस कह लीजिए. पर हिंदी दिवस? ग़लत समझ में आता है.
अब ये बात बिल्कुल अलहदा है कि राजभाषा बनकर हिंदी को फ़ायदे कम नुकसान ज़्यादा हुए. सरकारी हिंदी बन गई औपचारिक, रूखी और अनुवाद की भाषा. और वह भी बस खानापूर्ति को, बल्कि कई बार उतनी भी नहीं. न तो यह सही मायनों में राजभाषा बन सकी न सरकारी काजभाषा.
इसके कारण कई रहे होंगे और मैं उनमें नहीं जाना चाहता, पर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के विकास को सरकारी मशीनरी ने अवरुद्ध भले ही किया हो, गति तो नहीं दी. अगर हिंदी फिर भी जनभाषा है, विश्व में तीसरी-चौथी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़ुबान है, दिनों-दिन नये शब्द ग्रहण करती जीवंत बोली है, तो यह सरकारी मशीनरी के प्रयासों के बावजूद है, उनके कारण नहीं.
पर मनाने दीजिये सरकार को राजभाषा का एक दिन. आखिर यह आधिकारिक मामला है. इस बहाने साल में एक दिन तो समीक्षा करें कि आधिकारिक तौर पर इस दिशा में क्या काम हो रहा है. बस इसे हिंदी दिवस कहा जाना थोड़ा खटकता है. वैसे ही जैसे अगर आप स्वतंत्रता दिवस को भारत दिवस कहने लग जाएँ.
प्राकृतिक भाषाएँ एक दिन में जन्म नहीं लेतीं, इसलिये उनके जन्म-दिवस नहीं होते. यही कारण है कि आपने कभी फ़्रांसीसी दिवस या अँगरेज़ी दिवस नहीं सुने होंगे. ऐसे देशों में भी जहाँ माँ-बाप-भाई-बहन-पत्नी-चाचा-ताउओं के लिए भी दिन तय होते हैं, किसी भाषा का कोई ख़ास सरकारी या ग़ैरसरकारी दिन नहीं होता. फिर हमें ये क्या सूझी?
देखा जाए तो ग़लती तकनीकी है. १४ सितम्बर को हिंदी दिवस मनाने का कारण यह नहीं कि इस दिन हिंदी का जन्म हुआ था, या उस दिन इसका नाम पहली बार हिंदी पड़ा. बल्कि यह है कि १९४९ की १४ सितम्बर को हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला था. तो क़ायदे से इसे राजभाषा दिवस कहा जाना चाहिए. भाषा दिवस कह लीजिए. पर हिंदी दिवस? ग़लत समझ में आता है.
अब ये बात बिल्कुल अलहदा है कि राजभाषा बनकर हिंदी को फ़ायदे कम नुकसान ज़्यादा हुए. सरकारी हिंदी बन गई औपचारिक, रूखी और अनुवाद की भाषा. और वह भी बस खानापूर्ति को, बल्कि कई बार उतनी भी नहीं. न तो यह सही मायनों में राजभाषा बन सकी न सरकारी काजभाषा.
इसके कारण कई रहे होंगे और मैं उनमें नहीं जाना चाहता, पर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के विकास को सरकारी मशीनरी ने अवरुद्ध भले ही किया हो, गति तो नहीं दी. अगर हिंदी फिर भी जनभाषा है, विश्व में तीसरी-चौथी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़ुबान है, दिनों-दिन नये शब्द ग्रहण करती जीवंत बोली है, तो यह सरकारी मशीनरी के प्रयासों के बावजूद है, उनके कारण नहीं.
पर मनाने दीजिये सरकार को राजभाषा का एक दिन. आखिर यह आधिकारिक मामला है. इस बहाने साल में एक दिन तो समीक्षा करें कि आधिकारिक तौर पर इस दिशा में क्या काम हो रहा है. बस इसे हिंदी दिवस कहा जाना थोड़ा खटकता है. वैसे ही जैसे अगर आप स्वतंत्रता दिवस को भारत दिवस कहने लग जाएँ.
Monday, August 28, 2006
अनुवादकों के लिए कुछ 17-18 सुझाव
1. शुरू करने से पहले पूरा मूल-पाठ एक बार पढ़ लें. कथन के सार और शैली का एक अंदाज़ा ले लें. अपने अनुवाद में उसी कथ्य-शैली (मज़ाकिया, औपचारिक, तकनीकी, आदि) का प्रयोग करें.
2. विषय को जानें. शोध करें. अगर विषय-वस्तु पर आपकी पकड़ गहरी नहीं तो आपको मूल पाठ को ठीक-ठीक समझकर अनुवाद में स्पष्टतः व्यक्त करने में कठिनाई होगी.
3. अपने मुख्य पाठकवर्ग को पहचानें और उनके लिए अनुवाद करें. यदि आप किसी तकनीकी लेख का आम जनता के लिए अनुवाद कर रहे हैं तो कोशिश करें कि गूढ़ तकनीकी शब्दों (जार्गन) की बजाय धारणा (कांसेप्ट) को समझाने वाले वाक्य हों. अनुवाद को इस कसौटी पर उतारें कि क्या आपके पिता या माँ इसे समझ पाएँगे.
4. भाषा की बारीकियाँ, उसके मुहावरे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. ज़रूरी है कि संबंधित भाषाओं के बोलचाल और लेखन दोनों रूपों पर आपकी अच्छी पकड़ हो, पर खासकर लक्षित भाषा (हिंदी) पर.
5. भाषा सहज रखें - यह सबसे ज़रूरी नियम है. लेख में रवानगी होनी चाहिए. अनुवाद को उच्चारित करके पढ़ें और देखें कि ठीक लग रहा है या नहीं.
6. व्याकरण को सामान्य मानक बोलचाल वाली भाषा के करीब रखें. जब तक कि विषय की माँग न हो, क्षेत्रीय या आंचलिक लहजों/रूपों से परहेज करें. स्लैंग या भ्रष्ट रूप का प्रयोग मत करें.
7. नामों या नाम-रूपी संज्ञाओं को अनुवादित न करें. उदाहरण के लिए, 'इंटरनेट' एक नाम है, इसके अनुवाद की आवश्यकता नहीं. जबकि 'इंट्रानेट' एक तकनीकी विषय है, इसका अनुवाद करें.
8. विचारों, विषयों, धारणाओं को व्यक्त करने वाले पदों का अनुवाद करें, पर शब्दशः नहीं. इनके लिए ऐसे शब्दों या शब्दयुग्मों का प्रयोग करें जो पाठक को संबंधित विषय सबसे बढ़िया तरीके से समझा पाएँ. यदि आप आम रोजमर्रा जीवन से कोई समतुल्य विचार ढूँढ़ पाएँ, तो उसके लिए प्रयुक्त मौजूदा शब्द सबसे बेहतर काम करेगा.
9. पहले तद्भव. तकनीकी संकल्पनात्मक पदों के लिए हिंदी में नए शब्द ढूँढ़ते समय इस क्रम में देखें:
1) तद्भव/देशज
2) तत्सम
3) हिंदी में लोकप्रिय अन्य शब्द (विदेशी समेत)
अगर इनमें कोई उपयुक्त शब्द न ढूँढ़ पाएँ तो मूल शब्द को ही रख लें.
10. मूल विदेशी शब्द को लेते समय इस बात का ध्यान रखें कि उसके उच्चारण में यथोचित बदलाव हो ताकि
1) वह आम जनता द्वारा बोलने में आसान हो
2) उसे मौजूदा उपलब्ध अक्षरों/चिह्नों की मदद से लिखा जा सके
नागरी, अपने वर्तमान संशोधित रूप में, हिंदी ध्वनियों की आवश्यकता पूरी करने में समर्थ है. विदेशी शब्द उधार लेते समय उन्हें नागरी में आम तौर पर प्रयुक्त अक्षरों/चिह्नों के प्रयोग से ही लिखें. अनजान ध्वनियों के लिए उनके पास के उच्चारण वाले अक्षर प्रयोग करें. पर नए अक्षर या चिह्न मत गढ़ें.
11. हास्यास्पद या अटपटे पद न गढ़ें. चल नहीं पाएँगे. 'लौहपथगामिनी' को ले लीजिए. हालाँकि 'ट्रेन' का यह अनुवाद तकनीकी रूप से ग़लत नहीं है, पर अपनी अनावश्यक जटिलता से महज हँसी की चीज़ बनकर रह गया है. दूसरी तरफ़, 'रेलगाड़ी' सफल भी है और सही भी.
12. दुनिया भर में होने वाली नई खोजों के नाम सामान्यतया उनके खोजकर्ता रखते हैं और वे स्वाभाविक रूप से उनकी भाषा में होते हैं. इनका अनुवाद न करें. उच्चारण को हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल बनाने के बाद इन्हें ज्यों का त्यों ले लें.
13. नए शब्द गढ़ने का मोह त्यागें. अगर आप पढ़ते-लिखते रहें और दुनिया से जुड़े रहें तो पाएँगे कि आपको ऐसा करने की ज़रूरत बहुत कम पड़ेगी. यदि किसी ने पहले ही किसी पद के लिए ठीक-ठाक हिन्दी अनुवाद प्रस्तावित कर दिया है, तो उसे ही काम में लें.
14. इस बात को स्वीकारें कि सूचना तकनीक की शब्दावली मुख्यतः अमेरिकी अँगरेज़ी में है, उसी तरह जिस तरह योग से संबंधित शब्दावली संस्कृत में. कई ऐसे तकनीकी पद हैं जिन्हें हिंदी प्रयोक्ता उनके मूल अँगरेज़ी रूप में शायद बेहतर समझ और याद रख पाएँगे. अगर ऐसा लगे तो उन पदों को ज्यों का त्यों ले लें.
15. वर्तनी या हिज्जे ठीक रखें. अशुद्ध वर्तनी न केवल भ्रम पैदा कर सकती है, बल्कि आपके अनुवाद की विश्वसनीयता भी ख़त्म कर देती है.
16. जब शंका हो तो शब्दकोषों की मदद लेने में कोई संकोच न करें. पर केवल अच्छे, प्रतिष्ठित शब्दकोषों की.
17. याद रखें कि अनुवादक (और लेखक के भी) के तौर पर आपकी मुख्य जिम्मेदारी अपने पाठक तक ठीक-ठीक संप्रेषण की है. अपनी विचारधारा को इस काम में आड़े न आने दें. पर साथ ही, आलस्यवश या अज्ञानवश अँगरेज़ी शब्दों को अनुवादित किए बिना छोड़ कर अपने पाठक के प्रति असम्मान भी मत जाहिर करें. हँगरेज़ी या हिंगलिश मत लिखें.
18. और यह भी याद रखें कि समय और अनुभव के साथ ही अनुवाद में निपुणता आती है. इसलिए खूब अनुवाद करें.
2. विषय को जानें. शोध करें. अगर विषय-वस्तु पर आपकी पकड़ गहरी नहीं तो आपको मूल पाठ को ठीक-ठीक समझकर अनुवाद में स्पष्टतः व्यक्त करने में कठिनाई होगी.
3. अपने मुख्य पाठकवर्ग को पहचानें और उनके लिए अनुवाद करें. यदि आप किसी तकनीकी लेख का आम जनता के लिए अनुवाद कर रहे हैं तो कोशिश करें कि गूढ़ तकनीकी शब्दों (जार्गन) की बजाय धारणा (कांसेप्ट) को समझाने वाले वाक्य हों. अनुवाद को इस कसौटी पर उतारें कि क्या आपके पिता या माँ इसे समझ पाएँगे.
4. भाषा की बारीकियाँ, उसके मुहावरे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. ज़रूरी है कि संबंधित भाषाओं के बोलचाल और लेखन दोनों रूपों पर आपकी अच्छी पकड़ हो, पर खासकर लक्षित भाषा (हिंदी) पर.
5. भाषा सहज रखें - यह सबसे ज़रूरी नियम है. लेख में रवानगी होनी चाहिए. अनुवाद को उच्चारित करके पढ़ें और देखें कि ठीक लग रहा है या नहीं.
6. व्याकरण को सामान्य मानक बोलचाल वाली भाषा के करीब रखें. जब तक कि विषय की माँग न हो, क्षेत्रीय या आंचलिक लहजों/रूपों से परहेज करें. स्लैंग या भ्रष्ट रूप का प्रयोग मत करें.
7. नामों या नाम-रूपी संज्ञाओं को अनुवादित न करें. उदाहरण के लिए, 'इंटरनेट' एक नाम है, इसके अनुवाद की आवश्यकता नहीं. जबकि 'इंट्रानेट' एक तकनीकी विषय है, इसका अनुवाद करें.
8. विचारों, विषयों, धारणाओं को व्यक्त करने वाले पदों का अनुवाद करें, पर शब्दशः नहीं. इनके लिए ऐसे शब्दों या शब्दयुग्मों का प्रयोग करें जो पाठक को संबंधित विषय सबसे बढ़िया तरीके से समझा पाएँ. यदि आप आम रोजमर्रा जीवन से कोई समतुल्य विचार ढूँढ़ पाएँ, तो उसके लिए प्रयुक्त मौजूदा शब्द सबसे बेहतर काम करेगा.
9. पहले तद्भव. तकनीकी संकल्पनात्मक पदों के लिए हिंदी में नए शब्द ढूँढ़ते समय इस क्रम में देखें:
1) तद्भव/देशज
2) तत्सम
3) हिंदी में लोकप्रिय अन्य शब्द (विदेशी समेत)
अगर इनमें कोई उपयुक्त शब्द न ढूँढ़ पाएँ तो मूल शब्द को ही रख लें.
10. मूल विदेशी शब्द को लेते समय इस बात का ध्यान रखें कि उसके उच्चारण में यथोचित बदलाव हो ताकि
1) वह आम जनता द्वारा बोलने में आसान हो
2) उसे मौजूदा उपलब्ध अक्षरों/चिह्नों की मदद से लिखा जा सके
नागरी, अपने वर्तमान संशोधित रूप में, हिंदी ध्वनियों की आवश्यकता पूरी करने में समर्थ है. विदेशी शब्द उधार लेते समय उन्हें नागरी में आम तौर पर प्रयुक्त अक्षरों/चिह्नों के प्रयोग से ही लिखें. अनजान ध्वनियों के लिए उनके पास के उच्चारण वाले अक्षर प्रयोग करें. पर नए अक्षर या चिह्न मत गढ़ें.
11. हास्यास्पद या अटपटे पद न गढ़ें. चल नहीं पाएँगे. 'लौहपथगामिनी' को ले लीजिए. हालाँकि 'ट्रेन' का यह अनुवाद तकनीकी रूप से ग़लत नहीं है, पर अपनी अनावश्यक जटिलता से महज हँसी की चीज़ बनकर रह गया है. दूसरी तरफ़, 'रेलगाड़ी' सफल भी है और सही भी.
12. दुनिया भर में होने वाली नई खोजों के नाम सामान्यतया उनके खोजकर्ता रखते हैं और वे स्वाभाविक रूप से उनकी भाषा में होते हैं. इनका अनुवाद न करें. उच्चारण को हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल बनाने के बाद इन्हें ज्यों का त्यों ले लें.
13. नए शब्द गढ़ने का मोह त्यागें. अगर आप पढ़ते-लिखते रहें और दुनिया से जुड़े रहें तो पाएँगे कि आपको ऐसा करने की ज़रूरत बहुत कम पड़ेगी. यदि किसी ने पहले ही किसी पद के लिए ठीक-ठाक हिन्दी अनुवाद प्रस्तावित कर दिया है, तो उसे ही काम में लें.
14. इस बात को स्वीकारें कि सूचना तकनीक की शब्दावली मुख्यतः अमेरिकी अँगरेज़ी में है, उसी तरह जिस तरह योग से संबंधित शब्दावली संस्कृत में. कई ऐसे तकनीकी पद हैं जिन्हें हिंदी प्रयोक्ता उनके मूल अँगरेज़ी रूप में शायद बेहतर समझ और याद रख पाएँगे. अगर ऐसा लगे तो उन पदों को ज्यों का त्यों ले लें.
15. वर्तनी या हिज्जे ठीक रखें. अशुद्ध वर्तनी न केवल भ्रम पैदा कर सकती है, बल्कि आपके अनुवाद की विश्वसनीयता भी ख़त्म कर देती है.
16. जब शंका हो तो शब्दकोषों की मदद लेने में कोई संकोच न करें. पर केवल अच्छे, प्रतिष्ठित शब्दकोषों की.
17. याद रखें कि अनुवादक (और लेखक के भी) के तौर पर आपकी मुख्य जिम्मेदारी अपने पाठक तक ठीक-ठीक संप्रेषण की है. अपनी विचारधारा को इस काम में आड़े न आने दें. पर साथ ही, आलस्यवश या अज्ञानवश अँगरेज़ी शब्दों को अनुवादित किए बिना छोड़ कर अपने पाठक के प्रति असम्मान भी मत जाहिर करें. हँगरेज़ी या हिंगलिश मत लिखें.
18. और यह भी याद रखें कि समय और अनुभव के साथ ही अनुवाद में निपुणता आती है. इसलिए खूब अनुवाद करें.
Saturday, August 19, 2006
विदेश मंत्रालय की हिंदी साइट
कल अनुनाद के जरिये एक समाचार पढ़ा, जिसमें विदेश मंत्रालय द्वारा अपनी साइट का हिंदी संस्करण प्रस्तुत करने और हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाए जाने के प्रयासों की चर्चा है.
साइट देखी. कुछ बातें:
1) साइट यूनिकोड में नहीं है. एनआइसी वाले (जो आम तौर पर सरकारी साइटें बनाते हैं) किस दुनिया में रहते हैं पता नहीं.
2) अधिकतर पन्ने पीडीएफ़ में हैं. एक और मुसीबत. आम जनता के लिए मुश्किलें बढ़ाते जाओ.
3) कुल मिलाकर साइट सुगम्यता के नज़रिये से घटिया दर्जे की है.
4) मुझे जो एक बड़े काम की चीज़ लगी वह है इसका संसदीय प्रश्नोत्तर अनुभाग. यह अनुभाग सामान्य HTML में ही है.
हिंदी के बारे में प्रश्नोत्तरों पर नज़र डाली तो पाया कि एक सांसद श्री दलपत सिंह परस्ते हिंदी संबंधी प्रश्न पूछ रहे हैं. मैंने इससे पहले इनका नाम भी नहीं सुना. खोज की तो पता चला शहदोल, मध्य प्रदेश से भाजपा के सांसद हैं. इनका एक प्रश्न (प्र. सं. 2885) यूएन में हिंदी की मान्यता के बारे में ही है. एक प्रश्न (3940) कुँवर मानवेन्द्र सिंह का पूछा हुआ है.
इन प्रश्नोत्तरों से वर्तमान स्थिति तो अवगत होती ही है, यह भी पता चलता है कि किस सांसद की रुचि किस विषय में है.
क्यों न इन्हें कोई वेब और यूनिकोड के बारे में बताए!
साइट देखी. कुछ बातें:
1) साइट यूनिकोड में नहीं है. एनआइसी वाले (जो आम तौर पर सरकारी साइटें बनाते हैं) किस दुनिया में रहते हैं पता नहीं.
2) अधिकतर पन्ने पीडीएफ़ में हैं. एक और मुसीबत. आम जनता के लिए मुश्किलें बढ़ाते जाओ.
3) कुल मिलाकर साइट सुगम्यता के नज़रिये से घटिया दर्जे की है.
4) मुझे जो एक बड़े काम की चीज़ लगी वह है इसका संसदीय प्रश्नोत्तर अनुभाग. यह अनुभाग सामान्य HTML में ही है.
हिंदी के बारे में प्रश्नोत्तरों पर नज़र डाली तो पाया कि एक सांसद श्री दलपत सिंह परस्ते हिंदी संबंधी प्रश्न पूछ रहे हैं. मैंने इससे पहले इनका नाम भी नहीं सुना. खोज की तो पता चला शहदोल, मध्य प्रदेश से भाजपा के सांसद हैं. इनका एक प्रश्न (प्र. सं. 2885) यूएन में हिंदी की मान्यता के बारे में ही है. एक प्रश्न (3940) कुँवर मानवेन्द्र सिंह का पूछा हुआ है.
इन प्रश्नोत्तरों से वर्तमान स्थिति तो अवगत होती ही है, यह भी पता चलता है कि किस सांसद की रुचि किस विषय में है.
क्यों न इन्हें कोई वेब और यूनिकोड के बारे में बताए!
Tuesday, July 25, 2006
Saturday, July 08, 2006
लिखाई में प्रचलित १० ग़लतियाँ..
..जिनके प्रयोग से आप बेवकूफ़ दिखते हैं
(जोडी गिल्बर्ट के अँगरेज़ी लेख से प्रेरित)
पहले बता दूँ कि यहाँ मैं टाइप में भूल से हो जाने वाली अशुद्धियों (जिन्हें अंग्रेज़ी में 'टाइपो' कहते हैं) की बात नहीं कर रहा हूँ। ऐसी गलतियाँ तो सबसे होती हैं (हालाँकि इनका ध्यान रखना भी बहुत ज़रूरी है)। पर जब ये गलतियाँ अज्ञान के कारण होती लगती हैं, तो पाठक की नज़रों में आपका "भोंदू स्कोर" बढ़ने लगता है। और आपकी व आपकी बात की विश्वसनीयता उसी अनुपात में घटने लगती है। ये रहीं दस ऐसी व्याकरण या वर्तनी की गलतियाँ।
१. जहाँ नुक़्ता नहीं लगता, वहाँ नुक़्ते का प्रयोग
गलत - क़िताब, फ़ल, सफ़ल, फ़िर, ज़ंज़ीर, शिक़वा, अग़र
ठीक - किताब, फल, सफल, फिर, ज़ंजीर, शिकवा, अगर
२. बिंदु (अनुस्वार) की जगह चन्द्रबिंदु (अनुनासिक)
गलत - पँडित, शँकर, नँबर, मँदिर
ठीक - पंडित (या पण्डित), शंकर, नंबर (या नम्बर), मंदिर (या मन्दिर)
३. है की जगह हैं
गलत - रहना हैं तेरे दिल में
ठीक - रहना है तेरे दिल में
४. में और नहीं की बिंदी गोल कर जाना
गलत - जो बात तुझमे है तेरी तस्वीर मे नही
ठीक - जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं
५. रेफ को एक अक्षर पहले लगाना
गलत - मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है।
ठीक - मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
६. सौभाग्याकांक्षिणी की जगह सौ.कां.
गलत - सौ.कां. सुशीला के विवाह में अवश्य पधारें।
ठीक - सौभाग्याकांक्षिणी (या, सौ.) सुशीला के विवाह में अवश्य पधारें।
७. ड़ की जगह ड, या ढ़ की जगह ढ
गलत - पडोस, पढाई, हडताल
ठीक - पड़ोस, पढ़ाई, हड़ताल
८. अपने की जगह मेरे/तुम्हारे/उसके का प्रयोग
गलत - मैं मेरे घर जा रहा हूँ, तुम तुम्हारे घर जाओ।
ठीक - मैं अपने घर जा रहा हूँ, तुम अपने घर जाओ।
९. कि की जगह की, या उल्टा
गलत - क्योंकी शतरंज कि बाज़ी में ध्यान बँटा की हारे।
ठीक - क्योंकि शतरंज की बाज़ी में ध्यान बँटा कि हारे।
१०. बहुवचन संबोधन में अनुनासिक
गलत - आओ बच्चों! तुम्हें दिखाएँ..
ठीक - आओ बच्चो! तुम्हें दिखाएँ..
(जोडी गिल्बर्ट के अँगरेज़ी लेख से प्रेरित)
पहले बता दूँ कि यहाँ मैं टाइप में भूल से हो जाने वाली अशुद्धियों (जिन्हें अंग्रेज़ी में 'टाइपो' कहते हैं) की बात नहीं कर रहा हूँ। ऐसी गलतियाँ तो सबसे होती हैं (हालाँकि इनका ध्यान रखना भी बहुत ज़रूरी है)। पर जब ये गलतियाँ अज्ञान के कारण होती लगती हैं, तो पाठक की नज़रों में आपका "भोंदू स्कोर" बढ़ने लगता है। और आपकी व आपकी बात की विश्वसनीयता उसी अनुपात में घटने लगती है। ये रहीं दस ऐसी व्याकरण या वर्तनी की गलतियाँ।
१. जहाँ नुक़्ता नहीं लगता, वहाँ नुक़्ते का प्रयोग
गलत - क़िताब, फ़ल, सफ़ल, फ़िर, ज़ंज़ीर, शिक़वा, अग़र
ठीक - किताब, फल, सफल, फिर, ज़ंजीर, शिकवा, अगर
२. बिंदु (अनुस्वार) की जगह चन्द्रबिंदु (अनुनासिक)
गलत - पँडित, शँकर, नँबर, मँदिर
ठीक - पंडित (या पण्डित), शंकर, नंबर (या नम्बर), मंदिर (या मन्दिर)
३. है की जगह हैं
गलत - रहना हैं तेरे दिल में
ठीक - रहना है तेरे दिल में
४. में और नहीं की बिंदी गोल कर जाना
गलत - जो बात तुझमे है तेरी तस्वीर मे नही
ठीक - जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं
५. रेफ को एक अक्षर पहले लगाना
गलत - मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है।
ठीक - मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
६. सौभाग्याकांक्षिणी की जगह सौ.कां.
गलत - सौ.कां. सुशीला के विवाह में अवश्य पधारें।
ठीक - सौभाग्याकांक्षिणी (या, सौ.) सुशीला के विवाह में अवश्य पधारें।
७. ड़ की जगह ड, या ढ़ की जगह ढ
गलत - पडोस, पढाई, हडताल
ठीक - पड़ोस, पढ़ाई, हड़ताल
८. अपने की जगह मेरे/तुम्हारे/उसके का प्रयोग
गलत - मैं मेरे घर जा रहा हूँ, तुम तुम्हारे घर जाओ।
ठीक - मैं अपने घर जा रहा हूँ, तुम अपने घर जाओ।
९. कि की जगह की, या उल्टा
गलत - क्योंकी शतरंज कि बाज़ी में ध्यान बँटा की हारे।
ठीक - क्योंकि शतरंज की बाज़ी में ध्यान बँटा कि हारे।
१०. बहुवचन संबोधन में अनुनासिक
गलत - आओ बच्चों! तुम्हें दिखाएँ..
ठीक - आओ बच्चो! तुम्हें दिखाएँ..
Thursday, March 30, 2006
आधुनिक हिंदी साहित्य के मेरे सबसे पसन्दीदा लेखक मनोहर श्याम जोशी नहीं रहे। कमलेश्वर के शब्दों में 'यह हिंदी जगत के लिए एक हादसा है'। क्षति इसलिये भी परम दुखदायी है कि वे कई कृतियों पर कार्य कर रहे थे और पूरी तरह सक्रिय थे।
२००५ के साहित्य अकादमी पुरस्कार की प्राप्ति के अवसर पर उन पर लिखा एक परिचयात्मक लेख
२००५ के साहित्य अकादमी पुरस्कार की प्राप्ति के अवसर पर उन पर लिखा एक परिचयात्मक लेख
Friday, March 17, 2006
हिन्दी की खबरों की फ़ीड
ग्रॅब्लाइन - hindi.grabline.com - हिन्दी की खबरों की फ़ीडों का सङ्कलन।
अफ़सोस कि बीबीसी के अलावा कोई और अखबार फ़ीड देता नहीं है, वरना यह खबरों का अच्छा खासा भण्डार होता।
ग्रॅब्लाइन - hindi.grabline.com - हिन्दी की खबरों की फ़ीडों का सङ्कलन।
अफ़सोस कि बीबीसी के अलावा कोई और अखबार फ़ीड देता नहीं है, वरना यह खबरों का अच्छा खासा भण्डार होता।