Thursday, September 28, 2006

गलत गलत अभ्यास से...

कुछ अर्सा हुआ, आलोक ने एक अभियान शुरू किया था - चिट्ठों पर वर्तनी और व्याकरण की भूलों की ओर इशारा करने का. मेरे विचार से बड़ा ही उम्दा अभियान था, और बहुत ज़रूरी. अगर हिंदी चिट्ठों की वर्तमान स्थिति का जायज़ा लिया जाए तो यह सबसे ज़्यादा चिंता का विषय है. अपनी बात कहूँ तो अगर अँगरेज़ी के किसी चिट्ठे में मुझे इस क़दर वर्तनी अशुद्धियाँ मिलें तो मैं एक पैरे से आगे न बढ़ूँ और उस चिट्ठे पर लौटूँ तक नहीं. अक्सर कई हिंदी चिट्ठों के साथ भी ऐसा करने की इच्छा होती है, और कुछ के साथ किया भी है, पर कुछ मजबूरी में और कुछ लत की वजह से चलता रहता है.

मेरी बात कइयों को बुरी लग सकती है. अगर लगे तो माफ़ी. और चाहें तो मुझे भला-बुरा भी कह लें. पर इस बारे में ज़रा सोचें. ग़लतियों से मेरा उतना झगड़ा नहीं है, जितना न सीखने की प्रवृत्ति से है, उनके दोहराव से है. भाषा केवल ख़ुद के लिए नहीं होती. जब आप दूसरों के लिए लिखते हैं तो कम से कम इसका ख़याल रखें कि लोग आपकी बात ठीक-ठीक बिना अटके, बिना झुँझलाये समझ सकें. अब यह मत कहें कि मैं तो बस अपने लिए लिखता/ती हूँ. अगर आपका ब्लॉग सार्वजनिक है, आप दूसरों की टिप्पणियाँ लेते हैं और उनका जवाब देते हैं, तो आप दूसरों से बात कर रहे हैं. अगर हर कोई हिज्जों के अपने अपने संस्करणों का प्रयोग करने लगे तो संवाद मुश्किल हो जाएगा. साहित्य और कविता के चिट्ठों में तो ऐसी ग़लतियाँ अक्षम्य हैं. इन अशुद्धियों को लेखन-शैली से मत जोड़ें. शैली व्यक्तिगत होती है, व्याकरण और वर्तनियाँ नहीं.

अक्सर कई लोगों का तर्क होता है कि आप सामग्री पढ़िये न, अशुद्धियाँ को क्यों देखते हैं; जो लिखा है वह महत्वपूर्ण है. बेशक है. वह ज़्यादा महत्वपूर्ण है. पर खाना भले कितना ही स्वादिष्ट बना हो, अगर उसमें एक भी कंकर निकल आए तो पूरा मज़ा बिगड़ जाता है. फिर यह नहीं देखा जाता कि भई स्वाद तो अच्छा है. और जब कंकरों की लाइन लगी हो फिर तो खाना छोड़ने के अलावा कोई उपाय नहीं. दुनिया भर के संपादक और लेखक अगर अपनी प्रकाशित रचनाओं में इन चीज़ों का ध्यान रखते हैं, और इस पर अच्छा खासा समय देते हैं, तो इसलिए नहीं कि वे बेवकूफ़ हैं.

अनुरोध है कि थोड़ा ध्यान दीजिए. ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है. हममें से अधिकतर को अँगरेज़ी में पढ़ने-लिखने की आदत रही है. पर अब आप हिंदी में लिख रहे हैं तो हिंदी के प्रति कुछ सम्मान भी होना चाहिये. चलिए हिंदी के प्रति सम्मान न भी हो, अपने पाठक के प्रति तो होना ही चाहिए. लेखक अगर अपनी भाषा ही अच्छी तरह न जाने तो उसे कैसे पाठक मिलेंगे. हिंदी सीखने पर थोड़ा वक़्त देना नाजायज़ नहीं है. इसका फ़ायदा आख़िर आप ही को होना है. ग़लतियाँ जानने की कोशिश करना, लोगों से ग़लतियाँ पूछना, कोई बताये तो नाराज़ न होना, उन्हें सुधारना (ग़लतियों को, बताने वालों को नहीं :)), शब्दकोषों की मदद लेना, ये इस दिशा में कुछ शुरुआती क़दम हो सकते हैं.

आलोक तो फिलहाल व्यस्त लगते हैं. सोच रहा हूँ उनके काम को मैं जारी रखूँ. तो जहाँ तक हो सकेगा कोशिश करूँगा कि चिट्ठों को पढ़ते समय अगर मुझे कुछ ग़लत लगे तो टिप्पणी में लिख दूँ. अगर किसी को अपने चिट्ठे पर मेरा ऐसा करना बुरा लगे तो ज़रूर बताए. मैं आगे से वहाँ ऐसा नहीं करूँगा. साथ ही मेरी ग़लतियों पर भी ध्यान दिलाएँ, आभारी हूँगा.

22 comments:

  1. आप इस पहल के लिये साधुवाद के पात्र हैं।

    ReplyDelete
  2. आपका स्वागत है विनय जी। कई दिनों के बाद हिंदी लिखना शुरू किया तो बहुत बार अस्मंजस रहता है वर्तनी और व्याकरण की वजह से। यदि आप मार्गदर्शन करें तो इस से अच्छा क्या हो सकता है।

    ReplyDelete
  3. अच्छा लगेगा यदि त्रुटियों को सुधारने का मौका मिले..आप जरुर टिप्पणी करें.

    ReplyDelete
  4. उत्तम विचार है.आपसे अनुरोध है इसे प्रारम्भ करें.हमारी शुभकामनायें.

    अनूप शुक्ला

    ReplyDelete
  5. आपका कदम निःसंदेह बढ़िया है, और इस प्रयास की प्रशंसा की जानी चाहिए.

    परंतु आप यह भी मान लें कि अंग्रेज़ी में वर्तनी की अशुद्धियाँ न होने के पीछे तमाम उपलब्ध संसाधन हैं. यानी कि ब्राउज़र और ईमेल के भीतर तक भी अंग्रेज़ी के हिज्जे और व्याकरण की अशुद्धियाँ दूर करने के अंतर्निर्मित साधन हैं, और एक से एक बढ़िया साधन हैं.

    हिन्दी में एक भी नहीं है. ले देकर माइक्रोसॉफ़्ट हिन्दी ऑफ़िस में हिज्जे जांचने की सुविधा है, परंतु वह भी लड़के और लड़कों को गलत बताता है!

    अतः अशुद्धियों की ओर इशारा तो करें, पर इन अशुद्धियाँ माफ़ी के काबिल भी मानें, और हो सके तो क्षुब्ध न हों. :)

    ReplyDelete
  6. ऊपर 'इन अशुद्धियाँ ' की जगह 'इन अशुद्धियों को ' पढ़ें

    देखिए, टिप्पणी लिखने की जल्द बाजी में गलती हो गई, और मुए किसी भी औजार ने नहीं बताया कि भइए, तुमने गलत लिखा है!

    ReplyDelete
  7. विनय तुम्हारा चिट्ठा पढ़ते हुए मन में पानी में बहते हुए बिच्छु और उसे बचाने की कोशिश करने वाले साधु की कहानी की याद आ गयी. बिच्छु बार बार साधु को काटता पर साधु जी थे कि फ़िर भी उस बिच्छु को बचाने की कोशिश करते रहते. पूछने पर बोले कि हर किसी को अपनी प्रवृति का पालन करता होता है.
    मेरे विचार में इस कहानी में थोड़ा दोष है, क्योंकि मैं सोचता हूँ कि कभी कभी बिच्छु भी प्रवृति बदल सकते हैं, इसलिए हिम्मत न हारो. मुझे याद नहीं कि तुमने या आलोक में से किसने मुझे "ढ़" और "ढ" का अंतर समझाया था, पर मुझे समझ आ गया और उसे भूला नहीं हूँ.

    ReplyDelete
  8. बड़े से बड़े लेखक के लिखे को सम्पादन की आवश्यक्ता होती हैं. जिस दिन हिन्दी के लिए भी अंग्रेजी जैसे शब्द-संसाधक आ जाएंगे वर्तनी की भूले भी ठीक हो जाएगी.
    आपकी चिंता अपनी जगह एकदम उच्चीत हैं, पर आप इस पर मात्र खेद या दुःख व्यक्त कर सकते हैं तिरस्कार नहीं.

    ReplyDelete
  9. मैं आगे से वहाँ ऐसा नहीं करूँगा. साथ ही मेरी ग़लतियों पर भी ध्यान दिलाएँ, आभारी हूँगा.
    विनय जी,
    आपका लेख बहुत ही उम्दा है और आपका प्रयास भी सराहनीय है, परन्तु एक छोटी सी भूल/गल्ती आपसे भी हो ही गई है। :)
    हिन्दी में वाक्य के पूरे होने पर पूर्ण विराम या खड़ी पाई (।)लगाई जाती है अंग्रेजी/गुजराती की तरह डॉट (.) नहीं।

    ReplyDelete
  10. सभी का मुद्दे को समझने के लिए आभार.

    सुनील,
    कहानी अच्छी है. पर जहाँ बिच्छू वाली उपमा में थोड़ी कमी है, साधु वाली तो पूरी ही ग़लत है :).

    रवि,
    हिंदी में वर्तनी जाँचकों का अभाव बेशक एक बड़ा कारण है. पर मेरा उद्देश्य भाषा को बेहतर सीखने और ख़ुद अधिकतर कमियों को पकड़ पाने की क्षमता की ओर ध्यान दिलाना था.

    संजय,
    अगर आपने तिरस्कार का अनुभव किया तो क्षमा चाहता हूँ. मेरा मक़सद कतई ऐसा नहीं था. होता तो सहायता का हाथ नहीं बढ़ाता. दूसरे, वर्तनी-जाँचक उपकरण जब आएँगे तब आएँगे, तब तक क्या हम ग़लत लिखते रहें. उपकरणों की अनुपस्थिति हमारी जिम्मेदारी बढ़ाती है, कम नहीं करती.

    सागर,
    पूर्णविराम के लिए हिंदी में बिन्दु या डॉट का प्रयोग नया नहीं है और न ही अप्रचलित. आप इसे विवादास्पद भले ही कह सकते हैं. पर दोनों चलते हैं. कई उदाहरण समकालीन प्रकाशनों में देखे जा सकते हैं.

    ReplyDelete
  11. विनय तिरस्कार वाली बात व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं हैं. दील पर न ले.
    पूर्णविराम के लिए डॉट का प्रयोग हिन्दी के लिए अच्छा हैं, जिसे गुजराती ने वर्षो पहले अपना लिया उसे हिन्दी आज भी अपनाने से क्यों हिचक रही हैं.

    ReplyDelete
  12. बड़ा अच्छा अभियान है वैसे तो कहना यही चाहूँगा कि ये अभियान सफल ना हो लेकिन जानता हूँ ये मुमकिन नही है कुछ का कुछ मिल ही जायेगा आपको....जरूर बतायेगा शायद ही कोई बुरा माने।

    ReplyDelete
  13. विनय जी , आपको साधुवाद!भाषा लेखन की अशुद्धता पर अपनी बात कहने के लिये.मै हालाँकि हिन्दी टन्कण के मामले मे नई हूँ, फिर भी प्रयास करती हूँ कि शुद्ध हिन्दी लिखूँ.आप मेरे चिट्ठे पर न भी आयें ,तब भी आपके द्वारा विभीन्न चिट्ठों पर बताई गई गलतियाँ, अपने लेखन के समय न करूँ,इसका प्रयास करूँगी.फिर से धन्यवाद.
    माफ करेँ,मेरा हिन्दी चिट्ठा "वर्डप्रेस" पर है और यहाँ "ब्लोगस्पाट" वाले को ही टीप्पणी की अनुमति है,अत: अपने अन्ग्रेजी चिट्ठे के पते से टीप्पणी कर रही हूँ.
    रचना.

    ReplyDelete
  14. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete
  15. विनय, पहल तो बढ़िया है। पर काम बहुत बड़ा है - ग़लतियाँ निकालने लगेंगे तो यही करते रह जाएँगे। जब तक लेखक स्वयं यह न समझे कि ग़लतियाँ कम करनी हैं, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। वर्तनी जांचक भी किसी सीमा तक ही काम आते हैं। उदाहरणतः वर्तनी जांचक को कैसे पता चलेगा कि संबोधन "मित्रों" के स्थान पर "मित्रो" होना चाहिए, या "भूल" का बहुवचन "भूले" के स्थान पर "भूलें" होना चाहिए? वह तो इन शब्दों को वर्तनी सही होने के कारण सही मानेगा। फिर व्याकरण-जांचक की आवश्यकता पड़ जाएगी। या फिर लेखक स्वयं ध्यान दें।

    अधिकांश चिट्ठाकारों ने शायद हिन्दी औपचारिक रूप से पढ़ी भी नहीं होती। कइयों के लिए हिन्दी दूसरी भाषा होती है, इस कारण सही उच्चारण ही जब पता न हो तो सही वर्तनी भी नहीं लिखी जाती। इस प्रविष्टि पर की गई टिप्पणियों में ही देखें, कितनी त्रुटियाँ (अस्मंजस, बिच्छु, उच्चीत, गल्ती, दील, टन्कण, विभीन्न, टीप्पणी, भूले) हैं।

    जहाँ हिन्दी के लिए अंग्रेज़ी के जैसे वर्तनी जांचक उपलब्ध नहीं हैं, वहीं यह बात भी सोचने योग्य है कि हिन्दी के लिए वर्तनी जांचकों की उतनी आवश्यकता भी नहीं है। अंग्रेज़ी में वर्तनियों का न सिर है, न पैर, जबकि देवनागरी एक तर्कसंगत लिपि है। हिन्दी में यदि हम शब्द का सही उच्चारण जानते हों तो सही वर्तनी लिखने में भी दिक्कत नहीं होनी चाहिए। केवल कुछ नियम याद रखने की आवश्यकता है। मैं तो यही कहूँगा कि लेखकों को कोशिश करते रहना चाहिए कि सही लिखें।

    ReplyDelete
  16. रमण, बहुत पते की बात कही है आपने. हिंदी का ध्वन्यात्मक होना इसे लिखना अँगरेज़ी जैसी भाषाओं के मुक़ाबले बेहद आसान बना देता है. पर यही बात एक सवाल भी खड़ा करती है. कि फिर ऐसा क्यों है कि अँगरेज़ी को दूसरी भाषा की तरह पढ़े तमाम लोग भी अँगरेज़ी में ऐसी (और इस तादाद में) वर्तनी की ग़लतियाँ नहीं करते जितने हिंदी मातृभाषी हिंदी में करते हैं? कारण क्या है? लापरवाही? उदासीनता? या फिर हिंदी के प्रति हीनता का रवैया (जिसके लिए हिंदी वाले अक्सर अँगरेज़ीदाँ लोगों को दोष देते रहते हैं)? ये सोच कि हिंदी में सब चलता है? या कुछ और?

    ReplyDelete
  17. विनयजी, जैसा कि रमण भाई ने लिखा कि यदि हिन्दी शब्दों का सही उच्चारण मालूम है और उच्चारण के अनुसार लिखने का तरीका भी ज्ञात है तो हिन्दी में लेखन की त्रुटि नहीं हो सकती। अंगरेजी के दूसरी भाषा के रूप में अध्ययन में शिक्षक और विद्यार्थी का ध्यान निश्चित रूप से लेखन पर भी होता है। यदि किसी शब्द के हिज्जे (स्पेलिंग) ग़लत हैं तो छात्र को अध्यापक की प्रताड़ना तो मिलती ही है साथ ही परीक्षा में भी अंक काट लिए जाने की संभावना भी रहती है। इसीलिए अंगरेजी की वर्तनी में लोग गलतियाँ कम करते हों क्योंकि वे इसके प्रति संभवत‍: अधिक सचेत रहते हों। इसके अलावा जिन लोगों की मातृभाषा हिन्दी है उनके द्वारा बचपन से हिन्दी बोले जाने के कारण उनमें से अधिकांश व्यक्तियों की मानसिकता यह हो सकती है कि वे हिन्दी तो बेहतर जानते ही हैं।

    ReplyDelete
  18. वर्तनी की अशुद्धियों से आप संजाल पर खोज भी नहीं कर पायेंगे और शुद्ध हिज्जे वाले खोजी आप तक पहुंच भी नहीं पायेंगे.

    ReplyDelete
  19. विनयजी, मैं anonymus नहीं अतुल शर्मा हूँ। भूलवश ऐसा हो गया है।

    ReplyDelete
  20. all the time i used to read smaller articles which also
    clear their motive, and that is also happening with this piece of writing which I am reading now.countdown timer

    ReplyDelete