जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में / कठफोड़वा लौटता है काठ के पास /
ओ मेरी भाषा! मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ / दुखने लगती है मेरी आत्मा
-केदारनाथ सिंह
Monday, October 31, 2005
अमृता प्रीतम नहीं रहीं। एक सप्ताह के अन्तराल में भारतीय साहित्य के दो युगों का अन्त हो गया।
अँधेरे का कोई पार नहीं मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा... - अमृता प्रीतम (१९१९-२००५)
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